
होली केवल रंगों का उत्सव नहीं, बल्कि सनातन धर्म के शाश्वत सिद्धांतों का प्रतीक है, जिसमें सत्य की विजय, अधर्म का विनाश और अहंकार के पतन की गाथा समाहित है। यह पर्व न केवल भक्ति और प्रेम का उत्सव है, बल्कि यह एक चेतावनी भी है कि जो अपने पद, संपत्ति, संसाधन और शक्ति का दुरुपयोग कर निर्बलों, असहायों और सत्य के मार्ग पर चलने वालों का दमन करता है, उसका अंत भी होलिका की भांति भस्म होना निश्चित है।
होलिका: सत्ता, शक्ति और अन्याय का प्रतीक

होलिका का उल्लेख आते ही हमारी चेतना में एक अहंकारी महिला की छवि उभरती है, जिसने अपने भाई हिरण्यकशिपु के आदेश पर भक्त प्रह्लाद को अग्नि में जलाने का दुस्साहस किया था। किंतु क्या होलिका जन्म से ही क्रूर थी? नहीं, वह भी पहले सामान्य ही थी, किंतु सत्ता, अधिकार और शक्ति के मद में उसने अपने विवेक को खो दिया।
हिरण्यकशिपु अपनी शक्ति और पद का दुरुपयोग कर सम्पूर्ण विश्व पर प्रभुत्व स्थापित करना चाहता था। वह स्वयं को ईश्वर मान बैठा था और चाहता था कि लोग केवल उसी की पूजा करें। जब उसके पुत्र प्रह्लाद ने भगवान विष्णु की भक्ति का मार्ग चुना, तो उसने अपने ही पुत्र के प्राण लेने की योजना बनाई।
होलिका का छल और शक्ति का अहंकार
होलिका को यह वरदान प्राप्त था कि अग्नि उसे जला नहीं सकती। उसने इसी शक्ति का दुरुपयोग कर प्रह्लाद को छलपूर्वक अग्नि में बैठाने का कृत्य किया। उसे लगा कि वह अपने संसाधनों, पद और दैवीय शक्तियों का प्रयोग कर एक निर्दोष और सत्यनिष्ठ व्यक्ति का अंत कर देगी। किंतु यही उसकी अत्याचार और दंभ की पराकाष्ठा थी, जिसका परिणाम उसके विनाश के रूप में सामने आया।
जब होलिका प्रह्लाद को गोद में लेकर अग्नि में बैठी, तो ईश्वर की कृपा से प्रह्लाद सुरक्षित रहा और होलिका जलकर भस्म हो गई। यह घटना केवल एक धार्मिक कथा नहीं, बल्कि सत्ता, शक्ति और संसाधनों का अनुचित प्रयोग करने वालों के लिए एक अमिट सीख है।

सत्ता, संपत्ति और संसाधनों का दुरुपयोग: समाज और राष्ट्र के लिए खतरा जो अपने धन, पद और संसाधनों का उपयोग निर्बलों को कुचलने, असहायों का शोषण करने और राष्ट्र को क्षति पहुँचाने में करते हैं जो अपने अधिकारों का प्रयोग कमजोरों को दबाने के लिए करते हैं, वे भी एक न एक दिन अपने ही कर्मों की अग्नि में जलते हैं।
होलिका का अंत: अन्याय और अहंकार का नाश
जो अपनी उपलब्धियों को अपने हित में रखकर दूसरों को नुकसान पहुँचाता है, उसका विनाश तय होता है। चाहे वह कोई व्यक्ति हो, कोई शासक हो, कोई धनिक वर्ग हो या फिर कोई संगठन—अगर वह अपने संसाधनों का उपयोग समाज को दबाने, राष्ट्र को कमजोर करने और निर्बलों को सताने में करता है, तो वह भी होलिका की तरह नष्ट होता है।

धर्म और न्याय की विजय
होलिका दहन का अर्थ केवल पौराणिक कथा से जुड़ा एक अनुष्ठान भर नहीं, बल्कि यह धर्म और न्याय की विजय का महापर्व है। यह हमें स्मरण कराता है कि—
सत्य को मिटाने का प्रयास करने वाले स्वयं ही मिट जाते हैं।
अधर्म और अन्याय के बल पर खड़ी सत्ता, शक्ति और वैभव का अंत निश्चित है।
निर्बलों, शोषितों और धर्म के रक्षकों का ईश्वर स्वयं सहायक बनता है।

क्या हम अपने पद और प्रतिष्ठा का प्रयोग समाज के उत्थान के लिए कर रहे हैं या अपने स्वार्थ के लिए?
क्या हमारा धन समाज के कल्याण में लग रहा है या भ्रष्टाचार में लिप्त है?
क्या हम अपने संसाधनों को राष्ट्र निर्माण में लगा रहे हैं या केवल अपने वैभव को बढ़ाने में?
होलिका दहन केवल एक अनुष्ठान नहीं, यह एक चेतावनी है। यह हमें बताता है कि यदि हम अपने संसाधनों, पद, शक्ति और उपलब्धियों का उपयोग न्याय और धर्म के लिए नहीं करेंगे, तो हमें भी होलिका की भांति अग्नि में जलकर नष्ट होना पड़ेगा ।
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