
फागुन की हवा जब बहती है, तो सिर्फ रंग ही नहीं उड़ते, बल्कि दिलों की दूरियाँ भी मिटने लगती हैं। आम की बौर से महकते गाँव में, जब पलाश के लाल फूल खिलते हैं और सरसों के खेत पीले होकर मुस्कुराते हैं, तब हर मन में होली का उल्लास जग उठता है। लेकिन गुलाब गाँव में इस बार होली सिर्फ रंगों की नहीं, बल्कि दिलों को जोड़ने की थी।
यह कहानी सिर्फ गाँव की दुश्मनी खत्म करने की नहीं, बल्कि अमर और राधा के दस साल के इंतजार की भी थी।
गुलाब गाँव की गलियों में जब ढोल-मंजीरे गूँजते थे, तब अमर और राधा का नाम साथ लिया जाता था। बचपन में वे साथ खेलते, साथ होली खेलते, साथ हँसते-गाते थे। लेकिन दस साल पहले, जब अमर अपनी पढ़ाई के लिए शहर चला गया, तो वह सिर्फ गाँव को ही नहीं, बल्कि राधा को भी पीछे छोड़ गया था।

राधा ने हर साल उसकी राह देखी।
हर होली पर उसने अमर के नाम की गुलाल उठाई, लेकिन कभी उसे चेहरे पर नहीं लगाया।
हर फागुन में उसने आम के पेड़ के नीचे इंतजार किया, लेकिन अमर नहीं आया।
दस साल बीत गए, लेकिन राधा के मन का रंग बेरंग ही रह गया।
अब जब अमर लौटकर आया था, तो राधा के मन में सवाल था—क्या सच में हर होली बीते रंगों को लौटा सकती है?
गाँव की रंजिशें और पुरानी दुश्मनियाँ
गुलाब गाँव, जो अपने प्यार और भाईचारे के लिए जाना जाता था, पिछले कुछ वर्षों से बँटने लगा था।
रामदयाल और गोविंद—जो कभी बचपन के साथी थे, अब खेत की मेड़ को लेकर झगड़ते थे।
चाची गौरा और काकी सुखिया—जो कभी एक-दूसरे के घर बिना बुलाए आ जाती थीं, अब होली पर भी मुँह फेर लेती थीं।
किशन काका और उनके बेटे रवि—जो आपस में ही बात करना छोड़ चुके थे।
हरिया कुम्हार और मोहन लोहार—जिनकी दुकानें आमने-सामने थीं, लेकिन वर्षों से एक-दूसरे को देखना तक पसंद नहीं करते थे।
यह गाँव की पुरानी उलझी हुई कहानियाँ थीं, जिनमें रिश्तों पर धूल जम चुकी थी। लेकिन इस बार होली इन बैर-भावों को खत्म करने के लिए आई थी।
कागज़ पर लिखी रंजिशें और दस साल का इंतजार
रात के समय, जब होलिका जलाने की तैयारी हुई, तो पूरा गाँव इकट्ठा था।
हर किसी ने अपनी पुरानी शिकायतें, कड़वाहटें और दर्द एक कागज़ पर लिख दिए थे।
रामदयाल ने लिखा: “गोविंद भाई, खेत की मेड़ से बड़ा हमारा बचपन का साथ था। अब मैं बैर खत्म करता हूँ।”
गोविंद ने लिखा: “रामदयाल, मेरी गलती थी। होली के रंगों में अब कोई दीवार नहीं रहेगी।”
गौरा चाची ने लिखा: “सुखिया बहन, पुरानी बातें भूलकर फिर से रिश्ते को मिठास दें।”
किशन काका ने लिखा: “रवि बेटा, पिता-पुत्र में दुश्मनी कैसी? इस होली पर तुम्हें गले लगाऊँगा।”
हरिया कुम्हार ने लिखा: “मोहन भाई, मिट्टी और लोहे का मेल होता है, हमारी दोस्ती भी वैसी ही रहे।”


लेकिन राधा ने जो कागज़ डाला, उसे सिर्फ अमर ने पढ़ा:
“दस साल का इंतजार।”
अमर का दिल धड़क उठा। राधा ने दस साल उसकी प्रतीक्षा की थी, लेकिन उसने कभी लौटकर नहीं देखा।
अग्नि में जला इंतजार, रिश्तों पर चढ़ा रंग
जब होलिका में आग लगी, तो उसके साथ ही जल गईं सारी शिकायतेँ।
चारों ओर गुलाल उड़ने लगा।
ढोल-मंजीरे बज उठे।
गाँव के हर चेहरे पर हँसी थी, जैसे किसी ने भारी बोझ उतार दिया हो।
रामदयाल ने गोविंद को गले लगा लिया।
गौरा चाची ने सुखिया काकी का माथा चूम लिया।
किशन काका ने अपने बेटे रवि को सीने से लगा लिया।
हरिया कुम्हार और मोहन लोहार ने हाथ मिलाया और होली की ठंडाई पी ली।
लेकिन अमर के मन में अभी भी सवाल था—क्या राधा उसे माफ़ कर सकेगी?
अगले दिन पूरा गाँव रंगों में सराबोर था।
बच्चे पिचकारी लेकर दौड़ रहे थे।
बूढ़े-बुजुर्ग गुलाल में नहाए बैठे थे।
गाँव की औरतें टोली बनाकर फाग गा रही थीं
अमर और राधा आम के पेड़ के नीचे खड़े थे।
“राधा, इस बार मैं फिर से नहीं जाऊँगा,” अमर ने गुलाल उठाते हुए कहा।
राधा चुप रही। फिर उसने अमर के हाथ से गुलाल लिया और धीरे से उसकी आँखों पर मल दिया।
“अब भी इंतजार खत्म नहीं हुआ है, लेकिन इस बार इंतजार के रंग हैं,” राधा ने कहा।
अमर मुस्कुराया। अब उनकी होली अधूरी नहीं थी।
गाँव में पहली बार होली सिर्फ उत्सव नहीं, बल्कि एक नई सुबह बनकर आई थी।







होली सिर्फ गुलाल उड़ाने का त्योहार नहीं, बल्कि पुराने गिले-शिकवे मिटाने का पर्व है।
गुलाब गाँव में इस बार सिर्फ चेहरों पर रंग नहीं लगा था, बल्कि हर दिल रंग गया था—नेह के रंग, अपनापन के रंग, माफ़ी के रंग।
अमर और राधा के दस साल के इंतजार का रंग भी अब पूरा हो चुका था।
“तो आओ, इस होली हर बैर-भाव को जलाएँ, प्रेम का गुलाल उड़ाएँ!”
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