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प्यासे छात्र, बेहाल भविष्य सरकारी उपेक्षा का नतीजा

प्यासे छात्र, बेहाल भविष्य सरकारी उपेक्षा का नतीजा



450 बच्चों की प्यास, प्रशासन के लिए कोई बात नहीं!
दो महीने से खराब समर्सिबल, शिकायतों के बावजूद अधिकारियों की नींद नहीं खुली

अनुपपुर जिले के शासकीय उच्चतर माध्यमिक विद्यालय पयारी क्रमांक 1 के छात्र-छात्राएं प्रशासन की लापरवाही और अदूरदर्शिता के जीते-जागते सबूत बन चुके हैं। यहां पिछले दो महीनों से पेयजल संकट विकराल रूप ले चुका है। सरकारी सिस्टम इतना लाचार और संवेदनहीन हो गया है कि 463 छात्रों को रोज़ाना आधा किलोमीटर दूर हनुमान मंदिर से पानी लाने के लिए मजबूर किया जा रहा है। क्या यही है ‘सबका साथ, सबका विकास’ का नारा?
विकास की गंगा में डूबते स्कूल
नेशनल हाईवे-43 के किनारे बसे इस विद्यालय में पढ़ने वाले सैकड़ों छात्र-छात्राएं अपने अधिकारों के लिए तरस रहे हैं। जहां एक ओर प्रशासन विकास के झूठे कसीदे पढ़ रहा है, वहीं दूसरी ओर इन बच्चों की प्यास और सड़क हादसे का खतरा उनके ‘विकास’ की असलियत को उजागर करता है।
बच्चों को पढ़ाई के बीच में आधा किलोमीटर दूर हाईवे पार कर हनुमान मंदिर के पास स्थित हैंडपंप से पानी लेने जाना पड़ता है। इस दौरान गुजरती तेज रफ्तार गाड़ियां उनके जीवन के लिए हर पल खतरा बनी रहती हैं।
विद्यालय के प्राचार्य मनोज तिवारी ने आदिम जाति कल्याण विभाग और पीएचई विभाग को बार-बार पत्राचार किया। मगर जवाब में केवल एक रटा-रटाया बहाना मिला – “बजट नहीं है।” सवाल यह उठता है कि क्या सरकारी बजट केवल विभाग के अधिकारियों और नेताओं की ठेकेदारी  के लिए है? बच्चों की सुरक्षा और मूलभूत सुविधाओं का क्या?
प्यासे गले, खतरे भरे रास्ते’ – बच्चों की आपबीती
विद्यालय के बच्चों का कहना है कि पानी के लिए हमें हर दिन जोखिम उठाना पड़ता है। हाईवे पार करना और दूर हैंडपंप से पानी लाना हमारे लिए रोजमर्रा का संघर्ष बन गया है। क्या यह शर्मनाक नहीं है कि सरकारी दावे केवल भाषणों तक सीमित हैं?
सिस्टम का ‘सूखा,’ बच्चों की ‘प्यास’
सरकारी मशीनरी के लिए बच्चों का भविष्य शायद प्राथमिकता नहीं है। विकास के झूठे वादों के तले दबकर बच्चों के बुनियादी अधिकार कुचले जा रहे हैं। क्या यही है ‘स्कूल चले हम’ अभियान? या फिर प्रशासन केवल चुनावी मौसम में जागने वाली मशीनरी बन चुका है?
यह मामला केवल प्रशासन की नाकामी का प्रतीक नहीं है, बल्कि यह हमारी व्यवस्था का कड़वा सच भी उजागर करता है। जिला पंचायत और जनपद सदस्य  व्यस्त  है वह  चाहे तो अपने फंड से  मरम्मत करवा सकते इनका फंड कहा उपयोग होता हैं। बच्चों की समस्याओं पर कोई भी जनप्रतिनिधि बोलने को तैयार नहीं। यह न केवल उनकी असफलता है, बल्कि उनकी संवेदनहीनता भी।
आखिर जिम्मेदार कौन?
आखिरकार, इस पूरे घटनाक्रम की जिम्मेदारी किसकी है।
आदिम जाति कल्याण विभाग शिकायतों पर आंखें मूंदे बैठा है।
जिला प्रशासन जैसे यह समस्या कभी उनके कानों तक पहुंची ही नहीं।
विभाग की नाकामी या जानबूझकर अनदेखी?
दो महीने का वक्त कम नहीं होता। अगर इतनी शिकायतों के बावजूद समस्या का हल नहीं निकाला गया, तो इसका मतलब साफ है – या तो प्रशासन ने इसे जानबूझकर नजरअंदाज किया है, या फिर वह पूरी तरह अक्षम है।
कब जागेगा प्रशासन?
यह मामला केवल एक विद्यालय का नहीं, बल्कि उस पूरी व्यवस्था का है, जो बच्चों के भविष्य के साथ खिलवाड़ कर रही है।

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Kailash Pandey
Anuppur
(M.P.)

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