सिवनी जिले के सहायक आबकारी अधिकारी का रिश्वत लेते पकड़ा जाना किसी फिल्मी दृश्य से कम नही

सिवनी जिले के सहायक आबकारी अधिकारी का रिश्वत लेते पकड़ा जाना किसी फिल्मी दृश्य से कम नही

भ्रष्टाचार एक जीवनशैली बन चुका है जहां ईमानदारी एक पुरानी, धुंधली किताब का अध्याय मात्र रह गई है। हर दिन समाचारों में देख सुन रहे हैं कि लोकायुक्त, ईडी, सीबीआई जैसे विभागों द्वारा घूसखोरी पर ताबड़तोड़ कार्रवाइयां की जा रही हैं। इसके बावजूद अधिकारी-कर्मचारी ऐसी बेफिक्री से रिश्वत लेते हुए पकड़े जा रहे हैं मानो रिश्वत ही उनका आधिकारिक वेतन हो!

सिवनी के भ्रष्टाचार की ‘महिमा’

सिवनी जिले में लोकायुक्त टीम ने जिस तरह सहायक आबकारी अधिकारी को साढ़े तीन लाख रुपए की रिश्वत लेते रंगे हाथों पकड़ा, यह घटना सोचने पर मजबूर करती है कि आखिर इन अधिकारियों में कानून का डर क्यों नहीं है? क्या इन्हें सरकारी नौकरी का स्थायित्व इतना अधिक सुरक्षित नजर आता है कि भ्रष्टाचार की स्याही से अपने हाथ रंगते समय इनके हाथ नहीं कांपते? यह तो वही कहावत हो गई कि “ऊंट की पीठ पर बैठकर कह रहे हैं कि नीचे का कुछ पता नहीं।”

नैतिकता का हास्य – कैसे बेधड़क रिश्वतखोरी चलती है

कभी सोचा है कि कैसे ऐसे अधिकारी दिन-रात बेधड़क रिश्वत लेते हैं? क्या ये ऐसा सोचते हैं कि जनता तो अंधी है और वह सब कुछ बर्दाश्त कर लेगी? उन्हें हर दिन न्यायपालिका और कानून की नसीहत सुनाई जाती है, फिर भी इनपर कोई असर क्यों नहीं होता? लगता है कि इनके लिए जनता का धन वही चीज बन चुका है, जिसे जो जितना उड़ा सके, उसे उतना बड़ा अधिकारी माना जाए।

घूस का बाज़ार – एक आधुनिक ‘धंध रिश्वत लेना अब एक ‘आधुनिक व्यवसाय’ सा बन गया है। अधिकारीगण मानो इस बात से अच्छी तरह वाकिफ हैं कि जब तक आम जनता का ‘सहजता’ से पैसा आ रहा है, तब तक उनकी नौकरी सुरक्षित है। यह तो वही मामला है जैसे घर में आग लगाकर हाथ सेंकने वाली बात! किसी ने सही ही कहा है, “जितनी आसानी से चाय का प्याला हाथ में आता है, उतनी ही सहजता से घूस की रक़म अधिकारियों की जेब में जाती है।”

प्रशासनिक अव्यवस्था का आलम

इस घटना के बाद यह साफ हो जाता है कि हमारे प्रशासन में व्यवस्था नाम की कोई चीज रह नहीं गई है। यदि एक सहायक आबकारी अधिकारी, जिसकी जिम्मेदारी है कि जिले में अवैध शराब की रोकथाम करे, वह खुद रिश्वत के लालच में फंसा हो, तो किस आधार पर यह दावा किया जा सकता है कि कानून का पालन ठीक से हो रहा है? यह अपने ही सिस्टम पर सवालिया निशान है। कानून का काम डर फैलाना नहीं, बल्कि जनता को सुरक्षा देना है, पर जब कानून के रखवाले खुद ‘लुटेरे’ बन जाएं, तब जनता को कौन बचाएगा सजा का डर मिट गया है?

ऐसा प्रतीत होता है कि घूसखोरी को लेकर हमारे कानून में वह दम नहीं रह गया है कि अधिकारी उसमें खौफ खाएं। घूस लेते पकड़े जाने के बावजूद अक्सर अधिकारी अदालत से छूट जाते हैं या मामूली दंड पर रिहा कर दिए जाते हैं। ऐसे में यह अधिकारियों के लिए संकेत बन गया है कि रिश्वतखोरी में कुछ खास नुकसान नहीं है। उन्हें लगता है कि लोकायुक्त द्वारा पकड़े जाने पर कुछ दिन मीडिया में चर्चा हो जाएगी, फिर सबकुछ शांत हो जाएगा घूसखोरी एक प्रथा बन चुकी है?

यह रिश्वतखोरी की परंपरा बन चुकी है कि अधिकारी ‘लपकते हुए’ पैसे लेते हैं। इसके लिए किसी खास मौके की जरूरत नहीं है। सिवनी का यह मामला हमें सोचने पर मजबूर करता है कि जब एक जिले में इस तरह खुलेआम भ्रष्टाचार चल रहा है, तो प्रदेश में क्या हो रहा होगा? क्या यह वही प्रदेश है, जिसे प्राचीन काल में ‘धर्म और न्याय’ की भूमि कहा जाता था?


अक्सर लोकायुक्त की टीम द्वारा रिश्वत लेते हुए रंगे हाथों पकड़े जाने के बाद भी कई भ्रष्ट अधिकारी-कर्मचारी आसानी से बच निकलते हैं। उन्हें न तो नौकरी से बर्खास्त किया जाता है और न ही उन्हें गंभीर सजा मिलती है। इसके बजाय, अक्सर उनकी बस ट्रांसफर या पोस्टिंग बदल दी जाती है, और कई मामलों में केस सालों तक चलता रहता है।
जांच प्रक्रिया में खामियां और देरी
लोकायुक्त द्वारा पकड़े गए अधिकारियों के खिलाफ जांच प्रक्रिया बेहद जटिल और समय-लंबी होती है। इसमें कई चरणों की जांच और सबूत जुटाने का काम शामिल है। भ्रष्ट अधिकारियों के पास भी पर्याप्त कानूनी सहारा होता है, जिससे वे मामले को खींचने में सफल रहते हैं। कई बार भ्रष्ट अधिकारी इस प्रक्रिया का फायदा उठाकर खुद को निर्दोष साबित करने का प्रयास करते हैं, जिससे केस लंबा खिंचता है।

ट्रांसफर-पोस्टिंग का अस्थायी समाधान
जब कोई अधिकारी घूस लेते हुए पकड़ा जाता है, तो उसे त्वरित कार्रवाई के रूप में किसी अन्य स्थान पर ट्रांसफर कर दिया जाता है। यह एक अस्थायी समाधान है, क्योंकि इससे उनकी मूल समस्या हल नहीं होती। ऐसी पोस्टिंग का उद्देश्य केवल जनता का ध्यान भटकाना है, ताकि प्रशासन को तुरंत कोई कठोर कदम न उठाना पड़े। परिणामस्वरूप, भ्रष्ट अधिकारी कुछ समय बाद फिर से उसी पुरानी गतिविधियों में संलिप्त हो जाते हैं। राजनीतिक दबाव और अधिकारियों की ‘कनेक्शन’ की ताकत
कई भ्रष्ट अधिकारियों के पास उच्च स्तरीय राजनीतिक संपर्क होते हैं, जिनके सहारे वे खुद को बचा लेते हैं। इन राजनीतिक संबंधों के चलते उन्हें कानूनी प्रक्रियाओं से बचने और अपने खिलाफ मामलों को कमजोर करने में मदद मिलती है। कई बार उच्च प्रशासनिक पदों पर बैठे लोगों के दबाव के कारण लोकायुक्त और अन्य जांच एजेंसियां भी कठोर कार्रवाई करने में असमर्थ रहती हैं।

सजा में कमी और प्रशासनिक उदासीनता
कानूनी प्रक्रिया में रिश्वतखोरों को सख्त सजा देने का प्रावधान तो है, लेकिन इसका पालन सही ढंग से नहीं किया जाता। जब तक कोर्ट से ठोस फैसला नहीं आता, तब तक अधिकारी-कर्मचारी अपनी नौकरी में बने रहते हैं। इतना ही नहीं, यदि कोई अधिकारी कानूनन दोषी ठहराया भी जाता है, तब भी अक्सर उसे बर्खास्त करने की प्रक्रिया में अनावश्यक देरी की जाती है।


समस्या यह भी है कि कई विभागों में भ्रष्टाचार अब व्यवस्था का एक हिस्सा बन चुका है। इसका मतलब है कि भ्रष्टाचार के मामलों को गंभीरता से नहीं लिया जाता, और अधिकारियों को रिश्वतखोरी में लिप्त पाए जाने पर भी महत्वपूर्ण पोस्टिंग दी जाती हैं। यह एक असंवेदनशील और गैर-जिम्मेदाराना रवैया है, जो पूरे सिस्टम को कमजोर करता है।

प्रभावी कानून का अभाव
लोकायुक्त द्वारा पकड़े जाने के बाद यदि अधिकारियों को तुरंत निलंबित करने और सख्त कार्रवाई करने का प्रावधान होता, तो भ्रष्टाचार को कम किया जा सकता था। लेकिन वर्तमान कानूनों में इस तरह की त्वरित कार्रवाई का प्रावधान नहीं है। सरकारी कर्मचारियों के लिए विशेष सुरक्षा नीतियां बनाई गई हैं, जिससे उन्हें तत्काल कार्रवाई से बचाया जाता
कठोर सजा का प्रावधान – घूस लेते पकड़े जाने वाले अधिकारियों के खिलाफ तुरन्त निलंबन और नौकरी से बर्खास्तगी जैसी सख्त कार्रवाई होनी चाहिए। उन्हें दोषी पाए जाने पर सरकारी नौकरी से स्थायी रूप से हटाने का प्रावधान होना चाहिए।


विशेष अदालतों का गठन – भ्रष्टाचार के मामलों के लिए विशेष अदालतों का गठन होना चाहिए, जहां जल्दी सुनवाई हो सके। इससे मामलों का निपटारा जल्द होगा और दोषियों को जल्द सजा मिल सकेगी।

जनता की भागीदारी – जनता को भी भ्रष्टाचार के मामलों में जागरूकता बढ़ानी चाहिए और ऐसे मामलों की पूरी जानकारी प्राप्त करनी चाहिए। जनता का दबाव प्रशासनिक तंत्र को सुधारने में सहायक हो सकता है।
लोकायुक्त की स्वायत्तता – लोकायुक्त और अन्य जांच एजेंसियों को पूरी तरह से स्वायत्त बनाना चाहिए, ताकि वे बिना किसी राजनीतिक या उच्च प्रशासनिक दबाव के काम कर सकें ।

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