अनूपपुर जिले में बीजेपी के संगठनात्मक चुनाव में जिलाध्यक्ष पद को लेकर गहमागहमी और जोड़-तोड़ की राजनीति चरम पर है। विभिन्न पुराने चेहरे और कद्दावर नेता इस पद के लिए अपनी-अपनी तैयारियों में लगे हुए हैं। कुछ नेता अपने पुराने अनुभव, राजनीतिक दबदबे और नगर निकायों में प्रभाव का हवाला देकर समर्थन जुटा रहे हैं। वहीं दो पूर्व जिला अध्यक्ष, जो अब तक के हाईप्रोफाइल कार्यों के कारण चर्चा में रहे हैं, इनका भी समर्थन लावलस्कर के साथ सरकार में काबिज नेता जी के लिए अपनी पकड़ बनाए रखने के लिए सक्रिय हैं। यह तिकड़ी कामयाबी की ओर बताई जा रही है।
इस बार की प्रक्रिया में दिलचस्प यह है कि संभावित उम्मीदवारों का समर्थन जुटाने का तरीका भी बदल गया है। स्थानीय कार्यकर्ता और नेता संगठन के शीर्ष पदाधिकारियों के साथ व्यक्तिगत रूप से मिलकर समर्थन मांग रहे हैं। इस सिलसिले में एक विशेष नेता की चर्चा अधिक हो रही है, जिनकी प्रदेश प्रभारी के साथ अच्छी ट्यूनिंग उन्हीं के समर्थकों द्वारा बताई जा रही है। उनका गृह जिला भी प्रदेश प्रभारी के गृह क्षेत्र से मेल खाता है, यह कितना सही है बताने वाले उनके समर्थक जाने जिससे उनकी दावेदारी को और भी बल मिल रहा है।
अनूपपुर में जिलाध्यक्ष पद की दौड़ में महिलाओं को आरक्षण देने के वादे पर भी कई सवाल उठ रहे हैं। बीजेपी द्वारा 35% महिलाओं को आरक्षण देने की नीति के बावजूद, सवाल उठ रहे हैं कि क्या इस पद पर किसी महिला को मौका मिलेगा या फिर एक बार फिर पुराने, स्थापित चेहरे ही चयनित होंगे।
मुख्यमंत्री डॉक्टर मोहन यादव जी ने जिले के विकास को लेकर जो घोषणाएँ की थीं, उनका अमली जामा पहनाने की जिम्मेदारी कोई विशेष रूप से उठाने को तैयार नहीं दिखता। कई लोग इस स्थिति पर व्यंग्य करते हुए कहते हैं कि व्यक्तिगत विकास की राजनीति सब पर भारी पड़ती है, और “सबका साथ, सबका विकास” का नारा केवल कहने भर के लिए रह जाता है।
बीजेपी का अनुशासन और संगठनात्मक चुनाव की प्रक्रिया को लेकर स्थानीय कार्यकर्ताओं में यह असंतोष भी है कि आखिर कैसे पार्टी अनुशासन का पालन करते हुए भी उन्हीं चेहरों को तरजीह देती है जो पहले से कई महत्वपूर्ण पदों पर कब्जा जमाए हुए हैं।
जिले की राजनीति और रणनीति में कुछ नए समीकरण उभरते दिखाई दे रहे हैं। अनूपपुर में बीजेपी के जिलाध्यक्ष पद को लेकर जोड़-तोड़ और गुटबाजी के कारण पार्टी के आंतरिक वातावरण में भी तनाव महसूस किया जा रहा है। कुछ लोग इस चुनावी प्रक्रिया को सिर्फ रस्म-अदायगी मानते हैं, क्योंकि यह आम धारणा बन चुकी है कि पार्टी के शीर्ष नेतृत्व द्वारा ही जिलाध्यक्ष का नाम पहले से तय कर लिया जाता है, और रायशुमारी केवल औपचारिकता है।
संगठनात्मक चुनाव के दौरान ही स्थानीय कार्यकर्ताओं में यह भावना भी पनप रही है कि मेहनती और निष्ठावान कार्यकर्ताओं की बजाय हमेशा सत्ता से करीबी रखने वाले नेताओं को ही प्राथमिकता दी जाती है। ऐसे में, पार्टी का वह सिद्धांत, जिसमें कहा गया है कि कार्यकर्ता ही पार्टी की रीढ़ हैं, केवल कागजों पर रह जाता है। कई बार ऐसा भी देखा गया है कि बड़े नेताओं का समर्थन पाने वाले व्यक्तियों की योग्यता को नजरअंदाज कर केवल उनके सत्ता-प्रभाव को देखते हुए ही जिलाध्यक्ष का चयन किया जाता है।
महिला आरक्षण का मुद्दा भी पार्टी के लिए चुनौती बनता दिख रहा है। जहाँ महिला आरक्षण के माध्यम से महिला नेतृत्व को प्रोत्साहित करने की बात की जाती है, वहीं अनूपपुर जैसे जिले में यह देखने योग्य होगा कि क्या पार्टी इस दिशा में कोई ठोस कदम उठाती है। कार्यकर्ताओं के बीच इस बात को लेकर चर्चा हो रही है कि महिला जिलाध्यक्ष का चुनाव करके पार्टी एक नया संदेश दे सकती है, लेकिन वास्तविकता में यह देखना अभी बाकी है कि पार्टी अपने इस वादे पर अमल करती है या नहीं।
मुख्यमंत्री द्वारा विकास कार्यों की घोषणाओं और जमीनी स्तर पर उनके क्रियान्वयन की स्थिति भी राजनीतिक चर्चाओं का विषय बनी हुई है। जिन विकास कार्यों का वादा किया गया था, उन पर कितना अमल हुआ है, इस पर किसी का ध्यान नहीं है। जिलाध्यक्ष पद के लिए हो रही जोड़-तोड़ में असल विकास के मुद्दे कहीं खोते नजर आ रहे हैं।
यह सवाल भी उठता है कि जो नेता खुद के विकास और जनकल्याण के मुद्दों को दरकिनार कर केवल व्यक्तिगत पद और सत्ता की राजनीति में लगे हैं, वे किस हद तक पार्टी के “सबका साथ, सबका विकास” के नारे के प्रति वफादार हैं।
अनूपपुर जिले में संगठनात्मक चुनाव बीजेपी के लिए एक महत्वपूर्ण मोड़ साबित हो सकता है, क्योंकि इस चुनाव से यह तय होगा कि पार्टी अपने पुराने ढर्रे पर चलती रहेगी या फिर नए चेहरों और महिलाओं को मौका देकर एक सकारात्मक बदलाव की ओर कदम बढ़ाएगी।
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