सरकारी स्वास्थ्य सेवा की त्रासदी अस्पताल में संवेदनहीनता की भेंट चढ़ती गरीब जनता

सरकारी स्वास्थ्य सेवा की त्रासदी अस्पताल में संवेदनहीनता की भेंट चढ़ती गरीब जनता



जिला अस्पताल का दर्द सरकारी स्वास्थ्य, सरकारी डॉक्टर और निर्धन पब्लिक

हिंदुस्तान का शायद ही कोई ऐसा कोना बचा हो जहां स्वास्थ्य सेवाओं पर सवाल न उठे हों। सरकारी अस्पतालों में जाने पर आपको एक अलग ही दुनिया का अनुभव होता है। यहां उपचार की जगह, आपको एक ऐसी व्यवस्था का सामना करना पड़ता है जहां सुविधाओं की कमी, डॉक्टरों का अभाव, और संवेदनहीनता चरम पर होती है। अनूपपुर में हुई एक वृद्धा की दर्दनाक घटना, जो राष्ट्रीय राजमार्ग पर दुर्घटना का शिकार हो गई थी, इस व्यवस्था के गिरते स्तर को साफ दिखाती है। यह घटना स्वास्थ्य सुविधाओं की वास्तविकता को उजागर करती है और जनता के बीच गुस्से का कारण बनती है।

दुर्घटना का दृश्य और अस्पताल का हाल

बात एक वृद्ध आदिवासी महिला की है, जो अपने पालतू मवेशियों को चराकर शाम के वक्त घर लौट रही थी। दुर्भाग्यवश, उसे एक तेज रफ्तार मोटरसाइकिल ने टक्कर मार दी। इस दुर्घटना में उसे गंभीर चोटें आईं, और स्थानीय लोगों ने तुरंत उसे जिला अस्पताल पहुंचाया। आम आदमी के मन में अस्पताल शब्द से एक उम्मीद जगती है—जहां पीड़ा में राहत मिलेगी, डॉक्टर उपचार करेंगे, और स्वस्थ होने का अवसर मिलेगा। लेकिन इस महिला के साथ जो हुआ वह स्वास्थ्य व्यवस्था की सच्चाई को उजागर करता है।


महिला को अस्पताल लाया गया, पर वहां बिस्तर तक नहीं मिला। आप सोचिए, एक वृद्धा जो गंभीर चोट में है, उसे बाथरूम के सामने फर्श पर लिटा दिया गया। एक गद्दा उसके नीचे रखा गया, और उसकी हालात को देख कोई स्टाफ भी नहीं आया। इधर उधर घूमते डॉक्टर, नर्स, और अन्य कर्मचारी सभी अपने निजी कार्यों में व्यस्त दिखे, मानो एक गंभीर घायल वृद्धा उनकी प्राथमिकता में कहीं है ही नहीं।

सरकारी डॉक्टर और उनकी “प्राइवेट प्रैक्टिस”

सरकारी डॉक्टरों का रवैया एक ऐसा विषय है, जो सिविल सेवाओं में अक्सर सुनने को मिलता है। वे अपनी निजी प्रैक्टिस पर ज्यादा ध्यान देते हैं, सरकारी अस्पतालों में उनकी उपस्थिति केवल कागजों में होती है। सरकारी सुविधाओं की तनख्वाह और लाभ लेने के बावजूद, ये डॉक्टर अपने काम को पूरी तरह से निभाने में असमर्थ दिखते हैं। इस मामले में भी, डॉक्टरों का उस वृद्ध महिला की ओर संवेदनहीन रवैया रहा। अगर डॉक्टर और नर्सों ने समय पर ध्यान दिया होता तो शायद वृद्धा की जान बचाई जा सकती थी। लेकिन उनकी संवेदनहीनता ने उन्हें उस वृद्धा की पीड़ा से अनभिज्ञ बना दिया, जो अंततः उसकी मृत्यु का कारण बनी।

आयुष्मान कार्ड और हकीकत

सरकार ने आयुष्मान योजना जैसे कई योजनाएं शुरू की हैं, जिनका उद्देश्य सभी को स्वास्थ्य सेवाएं उपलब्ध कराना है। लेकिन जमीनी हकीकत इससे बिल्कुल अलग है। आयुष्मान कार्ड बनवाने में लोग घंटों लाइन में खड़े रहते हैं, लेकिन जब असल में इलाज की जरूरत होती है तो अस्पतालों में इन कार्डों की कोई कीमत नहीं होती। गरीब लोग यह समझते हैं कि उनके पास एक कार्ड है, जो उनकी हर बीमारी का इलाज कराएगा। लेकिन अस्पताल की हालत देखकर उनका विश्वास टूट जाता है।


क्योंकि डॉक्टरों के लिए कार्ड की महत्ता कोई मायने नहीं रखती। उनके पास समय ही नहीं है कि वे इन कार्डों के आधार पर गरीब जनता का इलाज करें। वे अपनी निजी क्लीनिक में प्रैक्टिस करने में व्यस्त हैं, जहां उन्हें मोटी फीस मिलती है। आयुष्मान कार्ड तो केवल एक कागज का टुकड़ा बनकर रह जाता है, जो गरीब आदमी के पास आशा के अलावा कुछ नहीं छोड़ता।

सरकारी व्यवस्थाएं क्यों नहीं सुधर रहीं?

सवाल यह उठता है कि आखिर क्यों जिला अस्पतालों की व्यवस्थाएं इतनी लचर हैं? इसके पीछे कारणों की कमी नहीं है सरकारी अधिकारियों का संवेदनहीन रवैया। जिले के स्वास्थ्य अधिकारियों का कर्तव्य होता है कि वे अस्पतालों की स्थिति पर नजर रखें, वहां की सुविधाओं का जायजा लें और सुधार करें। लेकिन नौकरशाही की लालफीताशाही और उनके निजी स्वार्थ के कारण ये अधिकारी इस जिम्मेदारी से भागते हैं  बीमार जनता की समस्याएं उनकी प्राथमिकता में नहीं होतीं।

स्वास्थ्य कर्मचारियों की कमी और उनकी लापरवाही। अस्पतालों में पर्याप्त नर्स, डॉक्टर, और अन्य कर्मचारी नहीं हैं। जो मौजूद हैं, वे अपनी जिम्मेदारी को पूरी तरह से नहीं निभाते। ऊपर से, अस्पताल में दवाइयों और उपकरणों की कमी से मरीजों की स्थिति और खराब हो जाती है।

सरकार की नीतियों में खामियां। आयुष्मान भारत जैसी योजनाएं लागू की जाती हैं, लेकिन इनके लिए पर्याप्त बजट और संसाधन उपलब्ध नहीं कराए जाते। सरकार केवल योजनाओं की घोषणा करके रह जाती है, लेकिन उन योजनाओं को जमीनी स्तर पर क्रियान्वित करने में असफल होती है।

गरीब जनता और सरकारी स्वास्थ्य सेवाएं

गरीब जनता का स्वास्थ्य सेवाओं पर भरोसा घटता जा रहा है। वे सरकारी अस्पतालों में जाने से कतराते हैं, क्योंकि वहां उन्हें उचित उपचार नहीं मिलता। जिनके पास पैसे हैं, वे निजी अस्पतालों में चले जाते हैं, लेकिन गरीब आदमी के पास यह विकल्प नहीं होता। उसके पास बस एक ही सहारा है—सरकारी अस्पताल, लेकिन जब वहां भी उसकी सुनवाई नहीं होती, तो वह लाचार हो जाता है। उसे अपनी पीड़ा सहने के अलावा कोई विकल्प नहीं दिखता।

स्वास्थ्य व्यवस्था का यह हाल क्यों है? क्या गरीब  का जीवन इतना कम महत्वपूर्ण है कि उनके लिए कोई सुविधाएं नहीं दी जातीं?  जब तक सरकारी स्वास्थ्य सेवाओं का यह रवैया बना रहेगा, तब तक गरीब जनता का जीवन हमेशा जोखिम में ही रहेगा।

सरकारी अस्पताल, सरकारी डॉक्टर, और गरीब जनता—यह एक त्रासदी है, जिसका अंत नहीं दिखता।

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