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खनिज विभाग हो या परिवहन —सब अपनी ड्यूटी निभाते हैं, फर्क इतना है कि ड्यूटी जनता पर, और मौन माफियाओं पर।

खनिज विभाग हो या परिवहन —सब अपनी ड्यूटी निभाते हैं, फर्क इतना है कि ड्यूटी जनता पर, और मौन माफियाओं पर।

“जब आंखें हों बंद—तो ट्रक हाथ हिलाकर निकल जाते हैं”

कोल साइडिंग के अफसर—डिब्बों की गिनती में इतने मशगूल कि टनों  कोयला का गायब होना भी नहीं दिखता”

कोतमा स्टेशन पर तौल कांटे की जगह भविष्यवाणी मशीन काम करती है। अचानक पता चल जाता है कि डिब्बा ज्यादा लोड है, और फिर पिकअप गाड़ियां मुनाफे का बोझ ढोने निकल पड़ती हैं।

सवाल सीधा है अगर अखबार सच्चाई लिख सकता है, तो विभाग फाइलों में क्यों चुप है?
“कोयले का धुआं सिर्फ आसमान को काला नहीं करता, जेबों को सफेद भी करता है” और कोल माफियों की हवेली भी चमकती है।

“कोयले का महामेळा : 300 किलोमीटर का सफर, माफिया की कारगुज़ारी और जिम्मेदारों की चुप्पी”

अनूपपुर के बिजुरी रेलवे साइडिंग से उठती कोयले की काली धूल में सिर्फ ट्रक ही नहीं, करोड़ों का खेल भी लदा रहता है।
300 किलोमीटर दूर से घुमाकर लाया जाने वाला कोयला मानो ‘पिकनिक स्पॉट’ पर घूमने आया हो—पहले जंगलों से होकर, फिर बाईपास से गुज़रता और आखिर में माफियाओं की जेब में समा जाता है।

रेलवे ट्रैक पर कोयले की बोरियां बदलती हैं, तौल कांटे पर आंकड़े बदलते हैं, और दफ्तरों में फाइलें बदल जाती हैं। पर जो नहीं बदलता वह है—जिम्मेदारों का मौन।

जिम्मेदार विभाग की गाड़ियां तो हर जगह खड़ी दिख जाएंगी, यातायात पुलिस सायरन बजाती घूमती मिलेगी, पर जब बात कोयला ढुलाई की आती है तो सब “राम भरोसे परिवहन विभाग” के हवाले। रेलवे अफसर इतने व्यस्त हैं कि डिब्बों की गिनती करते-करते उन्हें डिब्बों में से उड़ते टनों कोयले का बोझ महसूस ही नहीं होता।

जिलेवासी सवाल करते हैं “जब हर रोज़ 50 से ज्यादा ट्रक उसी रास्ते से निकलते हैं, तो क्या जिम्मेदार  विभाग की गाड़ियां चश्मा पहनकर उल्टी दिशा में क्यों  देखती हैं?”

“रेलवे की साइडिंग अगर माफियाओं का ‘काला दरबार’ बन चुकी है, तो फिर कानून कहां है?”

असल में यह पूरा खेल भंडारण और मिश्रण के नाम पर चलता है।
साफ कोयला बीच में दब जाता है, ऊपर की परत में खराब माल लाद दिया जाता है। कंपनी के प्लांट तक पहुँचते-पहुँचते गुणवत्ता का चेहरा काला हो जाता है, लेकिन माफिया की जेबें नोटों से सफेद हो उठती हैं।

कोतमा रेलवे स्टेशन का “कोयला तमाशा”

गोविंदा साइडिंग से लदी ट्रेन कोतमा आती है। यहां टैरेक्स लगाकर डिब्बे से कोयला उतारा जाता है और फिर पिकअप गाड़ियों से ढोया जाता है। सवाल यह नहीं कि यह कोयला कहाँ जाता है—सवाल यह है कि हजारों यात्री रोज अपनी आंखों से यह खेल देखते हैं, लेकिन जिम्मेदारों की आंखें ‘नींद में बंद’ क्यों रहती हैं? क्या यह सच या नहीं यह तो जिम्मेदार लोग ही बता सकते हैं

कहानी यही नहीं रुकती कुछ तर्क दिए जाते हैं जो सुने जाते हैं कि “साइडिंग से ज्यादा लोडिंग हो गई थी, इसलिए उतारकर वापस भेज रहे हैं।”
जांचर्चा में  “अरे भइया, अगर तौल ब्रिज काटा ही नहीं गया, तो कोतमा स्टेशन पहुंचते-पहुंचते अचानक कैसे पता चल गया कि डिब्बा ज्यादा लोड है?”
“यह तौल मशीन है या भविष्यवाणी करने वाला कोई ज्योतिषाचार्य, जो स्टेशन पर आते ही वजन बता देता है?”

सबसे बड़ा सवाल अगर पत्रकार कैमरे से तस्वीर खींच सकता है, तो पुलिस क्यों नहीं देख सकती?

अगर अखबार लिख सकता है, तो खनिज विभाग क्यों नहीं पढ़ सकता?

अगर हजारों यात्री रोज यह खेल देख सकते हैं, तो जिम्मेदार लोग इस खेल का हिस्सा क्यों
“कोयले का धुआं सिर्फ आसमान को काला नहीं करता, यह जिम्मेदार अफसरों की अंतरात्मा को भी राख कर चुका है। फर्क बस इतना है कि धुएं से आंखों में पानी आता है, और अंतरात्मा के जलने से जेबों में नोट।”

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Kailash Pandey
Anuppur
(M.P.)

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