
अनूपपुर में बिजली कर्मियों का आक्रोश—ऊर्जा मंत्री के नाम सौंपा ज्ञापन, पूछा आखिर आउटसोर्स की ‘ठेकेदारी बीमारी’ क्यों?
अनूपपुर।
बिजली वही है, बल्ब वही है, खंभा वही है, लाइन वही है, पर फर्क बस इतना कि पहले कर्मचारी “सरकारी” कहलाते थे और अब “आउटसोर्स”। और इस फर्क का नाम है—ठेकेदारी कल्चर। यही वह ठेकेदारी है जो नेताओं की चुनावी कोष और अफसरों की जेब का चार्जिंग प्वाइंट बन चुकी है।
16 सितंबर मंगलवार को अनूपपुर जिला मुख्यालय पर यह ठेकेदारी का करंट और ज्यादा तेज़ हो गया, जब मध्यप्रदेश बाह्य स्रोत विद्युत कर्मचारी संगठन (भारतीय मजदूर संघ से संबद्ध) ने ऊर्जा मंत्री के नाम ज्ञापन सौंपते हुए कहा—”हम भी स्किल्ड हैं, 20-20 साल से तार पकड़ रहे हैं, अब हमें भी 60 साल तक सेवा का सम्मान दो।”
ज्ञापन में साफ लिखा गया—49263 नए पद स्वीकृत हैं, इन्हें विभागीय परीक्षा से भर दो, ताकि आउटसोर्स कर्मियों को सम्मान और कंपनी को अनुभवी कर्मचारी दोनों मिल जाएं।
मांगें बिजली सी, पर सुनवाई मोमबत्ती जैसी

आउटसोर्स कर्मियों ने अपनी मांगों की लिस्ट थमा दी, जिसमें से कुछ तो तमिलनाडु से प्रेरित थीं, कुछ उड़ीसा से और कुछ हरियाणा से।
50,000 रिक्त पदों को विभागीय परीक्षा से भरने की मांग।
भविष्य की भर्ती में 50% आरक्षण आउटसोर्स कर्मियों के लिए।
बोनस 8.33% से बढ़ाकर 20% करने और 57 महीने का एरियर देने की मांग।
केंद्र सरकार के बराबर न्यूनतम वेतन।5 साल की जगह 9 साल बाद हुई वेतन पुनरीक्षण की भरपाई।
संविदा दर्जा, संविदा जैसी सुविधाएँ।बिजली कंपनी का निजीकरण बंद।
मृतक श्रमिकों के परिवार को 10 लाख मुआवजा व अनुकंपा नियुक्ति।
कर्मियों ने कहा—”बिजली से अंधेरे को भगाने वाले हम लोग खुद अंधेरे में जी रहे हैं।”
आखिर आउटसोर्स कंपनी की जरूरत क्यों पड़ती है?इस सवाल का जवाब बड़ा आसान है
नेता चाहते हैं चंदा चुनाव आए तो ठेकेदार से फंड चाहिए, सीधी भर्ती हुई तो पैसा कहाँ से आएगा?
अफसर चाहते हैं कमीशन : ठेका पास करो, चुपचाप रकम मिल जाएगी। स्थायी कर्मचारी तो सीधे नियम-कानून दिखा देंगे।
ठेकेदार चाहते हैं गुलामी : आउटसोर्स कर्मचारी बोले नहीं, लिखे नहीं, हड़ताल करे नहीं। बस काम करो और चुप रहो।
व्यवस्था चाहती है कमजोर मजदूर : ताकि हर समय नौकरी खोने का डर रहे, और कोई पक्का हक न माँग सके।
यानी सीधी भाषा में कहें तो—आउटसोर्स कंपनी असल में नेताओं-अफसरों की “ATM मशीन” है और मजदूर उसका पिन नंबर। ‘बिजली कर्मी खुद करंट खा रहे हैं’
आज हालत यह है कि जिनके हाथों में तार पकड़कर गाँव-गाँव उजाला फैलता है, उन्हीं के घर अंधेरे में डूबे रहते हैं।
वेतन समय पर नहीं।जोखिम भत्ता नाम की चीज़ किताबों तक सीमित।
दुर्घटना हो जाए तो 4 लाख में निपटा दो, जैसे जिंदगी का दाम किसी स्क्रैप मार्केट में तय हो।
और मजे की बात यह कि जब-जब चुनाव आता है, तो पार्टियाँ अपने घोषणापत्र में आउटसोर्स कर्मियों को “संविदा जैसी सुविधा” का वादा करती हैं। लेकिन चुनाव जीतने के बाद यही वादा तार में लटकते कबूतर की तरह रह जाता है—न उड़ता है, न उतरता है।
ठेका हटाओ, उजाला बचाओ

अनूपपुर के बिजली आउटसोर्स कर्मियों का सवाल पूरे प्रदेश का है—क्या मजदूर सिर्फ ठेका कंपनियों के लिए पैदा हुए हैं? क्या 20-20 साल का अनुभव सिर्फ इसलिए है कि वे हमेशा अस्थायी बने रहें?
अगर सरकार सच में “सबका साथ, सबका विकास” चाहती है, तो आउटसोर्स कर्मियों का शोषण रोकना होगा, ठेका कल्चर समाप्त करना होगा और उन्हें सम्मानजनक दर्जा देना होगा। वरना जिस दिन ये कर्मी तार छोड़ देंगे, उसी दिन सत्ता के महलों की बत्तियाँ भी गुल हो जाएँगी।



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