
टीकमगढ़ से रिपोर्ट
राजनीति का मंच, एक मोबाइल कॉल और एक टीआई को सरेआम फटकार — सीन कुछ ऐसा था जैसे किसी बॉलीवुड फिल्म में हीरो ग़लत को सही करने निकला हो। लेकिन जैसे-जैसे परतें खुलीं, पूरी स्क्रिप्ट ही उलट गई। और इस बार पर्दे पर ‘मसीहा’ ही विलेन को गले लगाता नजर आया।
मामला टीकमगढ़ के जतारा थाना क्षेत्र का है, जहां कांग्रेस प्रदेशाध्यक्ष जीतू पटवारी एक दलित परिवार की फरियाद पर टीआई रवि भूषण पाठक को मंच से ही धमकाते हैं — वो भी पूरे जोश, जूनून और जनता के तालियों के बीच। लेकिन कुछ दिन बाद जो खुलासा हुआ, उसने सबकी बोलती बंद कर दी और तालियाँ अब ठहाकों में बदल गईं।
राजनीति का रंगमंच और हत्या का रहस्य
दिन था 17 अप्रैल, मंच सजा था, भीड़ जोशीली थी और पटवारी जी के तेवर गरम। पीड़ित परिवार की महिला और एक युवक मंच तक पहुँचे। बताया गया कि 13 अप्रैल को उनके घर के सदस्य तुलाराम प्रजापति की हत्या हो गई। नेता जी ने बिना एक सेकंड गंवाए मंच से ही जतारा टीआई को फोन ठोंका —
“अब तक हत्यारे खुले घूम रहे हैं? सुन लो… अगर कार्रवाई नहीं की तो जतारा थाना का घेराव करूंगा!”
टीआई साहब ने भी शांत पर तीखा जवाब दिया
“जिन पर संदेह है, उनसे पूछताछ हो चुकी है। मैं दो साल पीएचक्यू में वनवास काटकर आया हूं, काम में लापरवाही नहीं करता।”
यह संवाद और धमकी वाला वीडियो सोशल मीडिया पर खूब चला, तालियाँ बजी, जनता खुश।
लेकिन हकीकत तो बहुत ‘काली’ थी…
22 अप्रैल को पुलिस ने खुलासा किया कि खुद ‘पीड़ित’ बनकर मंच पर पहुँचे लोग ही असली हत्यारे थे!
घनेंद्र प्रजापति (भतीजा) और उसका पिता सियाराम प्रजापति, जिनकी आंखों में मंच पर आंसू थे और होठों पर इंसाफ की दुहाई — असल में लोहे की छड़ से तुलाराम की हत्या करने वाले निकले।
जमीन विवाद और एक घरेलू मुद्दे को लेकर इन दोनों ने रात के अंधेरे में ‘न्याय’ का गंदा खेल खेला और फिर उसी ‘खून से सने हाथों’ से मंच पर न्याय की मांग करने पहुँच गए।
राजनीति बनाम कानून – अब किसका भरोसा करें?
सवाल अब यह है
क्या नेता जनभावनाओं के नाम पर खुद ही पुलिसिया जांच के रास्ते में दीवार बनते जा रहे हैं?
क्या मंच से ललकारना सिर्फ पब्लिसिटी स्टंट रह गया है?
और क्या ‘दलित’, ‘पीड़ित’ जैसे संवेदनशील शब्द अब राजनैतिक हथियार बनते जा रहे हैं?
टीआई का ‘वनवास’ और जीतू पटवारी का ‘विश्राम’?
टीआई रवि भूषण पाठक, जो खुद को “पीएचक्यू से लौटे वनवासी” बता रहे थे, अब ‘सत्य के संतरी’ की छवि में हैं। उनकी शांति और संयम ने साबित कर दिया कि थाने में बैठा अफसर हर बार गलत नहीं होता, और मंच पर खड़ा नेता हर बार सही नहीं।
हर पीड़ित ही निर्दोष नहीं होता, और हर अधिकारी दोषी नहीं।
मंचों से की गई राजनीति की बातें अब मंच से उतरे सवाल बन चुकी हैं। क्या अब नेता खुद से पूछेंगे —
“क्या हम हर आंसू पर भरोसा करने से पहले उसकी वजह की जांच करेंगे?”
या फिर अगली बार फिर कोई मंच सजेगा, फोन घनघनाएगा, तालियाँ बजेगी —
और जनता सोचती रहेगी,
“इस बार कौन सा विलेन हीरो बनकर आया



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