
छत्रपति संभाजी महाराज त्याग, साहस और स्वाभिमान की अमर गाथा
भारत के गौरवशाली इतिहास में कुछ ऐसे वीर योद्धा हुए हैं, जिनका त्याग, पराक्रम और बलिदान अनंत काल तक प्रेरणा का स्रोत बना रहेगा। ऐसे ही एक महानायक थे छत्रपति संभाजी महाराज, जो केवल एक पराक्रमी योद्धा ही नहीं, बल्कि हिंदवी स्वराज्य के सच्चे संरक्षक भी थे। उनका जीवन कठिन संघर्षों, वीरता और निष्ठा का अप्रतिम उदाहरण है।
संभाजी महाराज का जन्म और बचपन
छत्रपति शिवाजी महाराज के ज्येष्ठ पुत्र संभाजी महाराज का जन्म 14 मई 1657 को हुआ। वे बचपन से ही बुद्धिमान, बहादुर और रणनीतिक कौशल से भरपूर थे। उनकी माता सईबाई का निधन तब हो गया था, जब वे मात्र दो वर्ष के थे। इस कठिन परिस्थिति में उनका लालन-पालन उनकी दादी राजमाता जीजाबाई ने किया।
संभाजी महाराज ने छोटी उम्र में ही संस्कृत, मराठी, फारसी और कई अन्य भाषाओं का गहन अध्ययन कर लिया था। वे केवल एक कुशल योद्धा ही नहीं, बल्कि एक विद्वान भी थे। उन्होंने “बुद्धिभूषण” और “नखशिख” जैसी महत्वपूर्ण रचनाएँ लिखीं, जो उनकी बौद्धिक क्षमता का प्रमाण हैं।
पराक्रमी योद्धा और कुशल सेनानायक
संभाजी महाराज ने अपने पिता शिवाजी महाराज से युद्ध और शासन की कला सीखी थी। मात्र 16 वर्ष की आयु में वे बड़े अभियानों में भाग लेने लगे थे। जब 1680 में छत्रपति शिवाजी महाराज का स्वर्गवास हुआ, तब मराठा साम्राज्य के समक्ष कई चुनौतियाँ थीं। मुगल बादशाह औरंगजेब की मंशा हिंदवी स्वराज्य को नष्ट करने की थी, लेकिन संभाजी महाराज ने अपने शौर्य से मुगलों, पुर्तगालियों और अन्य विदेशी शक्तियों के षड्यंत्रों को विफल कर दिया।

स्वराज्य और धर्मरक्षा के लिए संघर्ष
संभाजी महाराज का शासनकाल कठिनाइयों से भरा था। उन्होंने 1681 में गद्दी संभालते ही दक्कन के विभिन्न दुश्मनों के खिलाफ युद्ध छेड़ दिया। वे जानते थे कि मुगलों का असली उद्देश्य मराठा स्वराज्य को समाप्त कर देना है, इसलिए उन्होंने हर कदम सावधानी से उठाया।
उन्होंने मुगलों के कई आक्रमणों को असफल कर दिया और 1689 तक औरंगजेब की सेना को भारी नुकसान पहुँचाया। उनके नेतृत्व में मराठा सेना ने दक्खन क्षेत्र में मुगलों, निजाम और आदिलशाही के खिलाफ कई सफल अभियानों को अंजाम दिय यातनाओं का सामना, लेकिन धर्म से नहीं डिगे
संभाजी महाराज के शौर्य और दृढ़ संकल्प से बौखलाए औरंगजेब ने 1689 में किले के एक सरदार की गद्दारी के कारण उन्हें बंदी बना लिया। उन्हें इस्लाम स्वीकार करने के लिए अत्यंत कठोर यातनाएँ दी गईं।
मुगलों ने उन्हें लालच दिया, भयभीत करने की कोशिश की, लेकिन संभाजी महाराज अपने स्वराज्य, स्वधर्म और स्वाभिमान से कभी पीछे नहीं हटे। उन्होंने औरंगजेब के हर प्रस्ताव को ठुकरा दिया और कहा:

“मुझे मृत्यु स्वीकार है, लेकिन मैं हिंदू धर्म नहीं छोड़ूंगा!”
औरंगजेब ने क्रोध में आकर 11 मार्च 1689 को उन्हें नृशंस तरीके से यातनाएँ देकर शहीद कर दिया। उनकी अदम्य वीरता और अटल संकल्प ने उन्हें इतिहास में अमर कर दिया।
संभाजी महाराज का प्रभाव और प्रेरणा
छत्रपति संभाजी महाराज का जीवन केवल एक योद्धा की कहानी नहीं है, बल्कि यह साहस, त्याग और राष्ट्रभक्ति की अमर प्रेरणा है। उन्होंने यह सिद्ध कर दिया कि एक सच्चा शासक वह होता है, जो प्रजा की रक्षा के लिए अपने प्राण तक न्योछावर कर दे।
आज भी उनकी वीरता महाराष्ट्र ही नहीं, बल्कि संपूर्ण भारत के युवाओं के लिए प्रेरणा का स्रोत बनी हुई है। उनके बलिदान ने मराठा साम्राज्य को खत्म होने से बचाया और आगे चलकर छत्रपति राजाराम और पेशवाओं ने उसी स्वराज्य को और मजबूत किया।

संभाजी महाराज की अमर गाथा
छत्रपति संभाजी महाराज केवल एक योद्धा नहीं थे, वे राष्ट्रभक्ति, आत्मसम्मान और निष्ठा के प्रतीक थे। उनका जीवन हमें यह सिखाता है कि चाहे कितनी भी कठिनाइयाँ आएँ, अगर आत्मबल मजबूत है तो कोई भी शक्ति हमें झुका नहीं सकती।
आज के युग में उनकी शिक्षाएँ और बलिदान युवाओं को सत्य, साहस और संघर्ष की राह पर चलने की प्रेरणा देते हैं।
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