
*✍🏻 अपर्णा दुबे*
माँ की कोख से जन्म लिया,
घर आंगन में गूँज बनी,
पलकों पर बिठा रखा जिसको,
वो बिटिया अब धुंध बनी।
नन्हे पाँव जब चलना सीखे,
बाबा की उंगली थाम चली,
गुड़ियों संग सपने बुनती,
ममता में हर साँस पली।
पर कहते हैं, बेटी पराई है,
ये शब्द हृदय को चीर गए,
जिस घर में थी वह दीप शिखा,
वहीं आज स्नेह के पीर गए।
चूड़ी, बिंदिया, कंगन, काजल,
सब अरमानों की सेज सजी,
पर पीछे छूटे वे लम्हे,
जो बचपन संग थे बँधे कभी।
डोली में बैठी, मुस्काई फिर भी,
मन भीतर बिन बोले रोया,
पलकों की कोर भीग न जाए,
बस यही सोच हर ग़म धोया।
माँ की चिट्ठी, बाबा का संदेश,
आँखों में सावन लाते रहे,
पराई कहकर भेज दिया जिसको,
यादों से कैसे मिटाते रहे?
संस्कारों की गठरी बांध,
अधरों पर हँसी समेट चली,
जिस घर में थी वह लाड़ली,
वहीं अब यादों में खेप चली।
क्या सचमुच बेटी पराई होती?
या बस दुनिया के दस्तूर यही?
क्यों ममता की इस गागर को,
भरकर सौंपी जाती कहीं?
कहते हैं, बेटी पराई है,
पर क्या सच में कोई पराया होता है?
जो घर-भर का नूर बनी,
वो फिर भी गैर बताया होता है?✍🏻 अपर्णा दुबे
*✍🏻 अपर्णा दुबे*



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