

हाथियों के आतंक और प्रशासन की उदासीनता बैगा परिवार की त्रासदी
जंगल का न्याय और इंसान का अन्याय
क्या यह संभव है कि इंसान के बनाए सिस्टम में जानवरों की दहशत से बचने के लिए इंसान पेड़ों पर सामान लटकाकर अपना जीवन बचाने को मजबूर हो? क्या यह वही भारत है, जहां “सबका साथ, सबका विकास” का नारा दिया जाता है, और वही प्रशासन जो जनजातीय समुदायों के लिए करोड़ों की योजनाओं का ढिंढोरा पीटता है?
मध्यप्रदेश के अनूपपुर जिले के जैतहरी तहसील के कुसुमहाई गांव का पाड़ाडोल टोला ऐसी ही त्रासदी और विडंबना की मिसाल बन गया है। यहां दो जनजातीय परिवार हाथियों के आतंक से अपने घरों को बचाने में असमर्थ होकर अपनी दैनिक उपयोग की सामग्री पेड़ों पर लटकाने को मजबूर हैं। यह न केवल उनकी बेबसी का प्रमाण है, बल्कि प्रशासन और सिस्टम की चौंकाने वाली नाकामी का जीवंत उदाहरण भी है
“हाथियों का जंगल और इंसान का भय”बैगा परिवार की त्रासदी
कुसुमहाई गांव के देवलाल बैगा और लालबहादुर सिंह गोंड के लिए जंगल अब “प्रकृति का उपहार” नहीं, बल्कि “खौफ का अड्डा” बन चुका है। छत्तीसगढ़ से आ रहे हाथियों के झुंड ने इन गरीब परिवारों को चार बार तबाह किया।
घरों पर हमला: ईंट और मिट्टी से बने उनके कच्चे घर, हाथियों के बार-बार हमलों में पूरी तरह से बर्बाद हो गए।
अनाज की सुरक्षा हाथियों से बचने के लिए उन्होंने अपने अनाज और जरूरी सामान महुआ के पेड़ों पर लटकाने का उपाय खोजा।
यह दृश्य भारत की “डिजिटल इंडिया” और “मिशन 2047” की बड़ी-बड़ी योजनाओं का एक नमूना भर है।
“बैगा जनजाति के विकास का सपना और हकीकत”
भारत में बैगा जनजाति को संरक्षित समुदाय का दर्जा दिया गया है। उनके नाम पर करोड़ों की योजनाएं चल रही हैं।
सच्चाई इस बैगा परिवार को हाथियों से बचने के लिए कोई सुरक्षा नहीं, कोई स्थायी आवास नहीं।
विकास के खोखले वादे यह विडंबना नहीं तो क्या है कि जिन समुदायों के नाम पर सरकारी योजनाएं और फंड की बातें होती हैं, वे अपनी जिंदगी बचाने के लिए रस्सी और पेड़ों का सहारा ले रहे हैं?
“विकास” की परिभाषा शायद नेताओं के लिए हवाई अड्डों और बड़े शहरों तक सीमित है। बैगा और गोंड जैसे समुदाय केवल कागजों पर “संरक्षित” हैं।
हाथियों के आतंक पर प्रशासन की चुप्पी क्या जानवरों का डर जरूरी है?
इन घटनाओं पर प्रशासन की प्रतिक्रिया ऐसी है, जैसे यह उनकी जिम्मेदारी ही न हो।
मुआवजे का खेल देवलाल बैगा को केवल एक बार मामूली सहायता राशि दी गई।
लालबहादुर सिंह गोंड को चार बार नुकसान झेलने के बाद भी मुआवजे के लिए भटकना पड़ रहा है।
वन विभाग की नाकामी
हाथियों के लिए जंगलों में भोजन का इंतजाम क्यों नहीं किया गया?
ग्रामीणों को सुरक्षित करने के लिए कोई कदम क्यों नहीं उठाए गए?

प्रशासन की चुप्पी यह दर्शाती है कि गरीब और जनजातीय समुदाय उनकी प्राथमिकताओं में सबसे नीचे हैं।
मुआवजे की मांग उन्होंने जिला प्रशासन से अपील की कि दोनों परिवारों को तुरंत मुआवजा दिया जाए।
लेकिन बड़ा सवाल यह है कि क्या केवल समाजसेवकों की पहल पर्याप्त है? क्या सरकार का कोई दायित्व नहीं?
“संवेदनहीन प्रशासन और जिम्मेदारी से भागता सिस्टम“
हाथियों का आतंक केवल कुसुमहाई गांव तक सीमित नहीं है। यह प्रशासनिक उदासीनता का एक उदाहरण है, जो पूरे देश में फैली हुई है।
क्या गरीबों की पीड़ा सिस्टम के लिए मायने रखती है?
क्या विकास केवल अमीरों और शहरी लोगों तक सीमित है?
क्या बैगा और गोंड समुदायों को “संरक्षित” कहना एक दिखावा है?
यह घटना इस बात का प्रमाण है कि भारत में गरीब और हाशिए पर खड़े समुदायों के लिए सरकारी योजनाएं केवल भाषणों और कागजों तक सीमित हैं।
कुसुमहाई के इन परिवारों की कहानी केवल जंगल और हाथियों की नहीं, बल्कि उस समाज की है, जो अमीर और गरीब के बीच की खाई को दिन-ब-दिन बढ़ाता जा रहा है।
क्या इन परिवारों को उनके घरों में सुरक्षित जीवन जीने का अधिकार मिलेगा?
क्या प्रशासन जागेगा और हाथियों के हमलों को रोकने के लिए ठोस कदम उठाएगा?
या फिर ये परिवार हर दिन डर और असहायता के बीच अपने जीवन को ऐसे ही लटकाते रहेंगे, जैसे पेड़ों पर उनकी गृहस्थी लटकी हुई है।
यह घटना न केवल प्रशासन की लापरवाही का प्रतीक है, बल्कि समाज के संवेदनहीन रवैये का भी आईना है। और जब तक इस रवैये में बदलाव नहीं आएगा, तब तक कुसुमहाई के जैसे अनगिनत गांव विकास की चकाचौंध से दूर, जंगल के अंधकार में खोए रहेंगे।



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