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जहां झोपड़ी में गूंजती गिनतियां कसेरु के गुरुकुल में शिक्षा और संस्कृति का अनोखा संगम
      दिनेश अग्रवाल                 आवारा कलम

जहां झोपड़ी में गूंजती गिनतियां कसेरु के गुरुकुल में शिक्षा और संस्कृति का अनोखा संगम      दिनेश अग्रवाल                 आवारा कलम

आधुनिक विकास बनाम परंपरा कसेरु पंचायत के आदिवासी गुरुकुल का सत्य और व्यंग्य
सरकार की विकास योजनाओं का जंगल के बीच ‘कसेरु’ में कैसे हो रहा माखौल


मानपुर जनपद का विश्व प्रसिद्ध बांधवगढ़ जहां देश-विदेश से सैलानियों को अपनी ओर खींचता है, उसी क्षेत्र की कसेरु पंचायत का एक दृश्य सरकार के विकास मॉडल पर एक चुभता हुआ काटा  है। यहां के सरिहाटोला में एकल शिक्षकीय प्राथमिक स्कूल आदिवासी बच्चों को एक झोपड़ी में पढ़ा रहा है। झोपड़ी, जो ना केवल ज्ञान का मंदिर है, बल्कि विकास और विडंबना का जीता-जागता उदाहरण भी।
गुरुकुल में शिक्षा का आलोक और सिस्टम का अंधकार
सरिहाटोला के मासूम बच्चे जब अपनी कंठस्थ की हुई गिनतियां दोहराते हैं, तो जंगल की शांति भी उनके स्वर में खो जाती है। मगर, क्या आपने सोचा है कि ये बच्चे किस तरह की सुविधा में पढ़ाई कर रहे हैं? 2015 से इस स्कूल की हालत जस की तस है। इसे गांव के ही एक ट्राइबल परिवार ने अपनी झोपड़ी दान में देकर शिक्षा की लौ जलाए रखने का प्रयास किया है।
जिन आदिवासी क्षेत्रों को सरकार आदिवासी मद, माइनिंग फंड और ‘आबा अभियान’ से विकसित करने की घोषणा करती है, वहां के ये बच्चे खुले आसमान तले पढ़ाई कर रहे हैं। क्या इसे हमारी संस्कृति का संरक्षण कहा जाए या विकास का मखौल?
मंत्री, अफसर और खोखले वादे
आदिवासियों के मसीहा कहे जाने वाले ज्ञान सिंह, जो कभी मंत्री रह चुके हैं, ने अपने बेटे को विधायक बनवा दिया। वहीं, मीना सिंह ने भी अपनी राजनीतिक तरक्की की नई परिभाषाएं गढ़ीं। मगर, इन नेताओं ने कसेरु की संस्कृति और “गुरुकुल झोपड़ी” को जस का तस बनाए रखने में कोई कसर नहीं छोड़ी।
आखिर क्यों? क्योंकि ये संस्कृति का सम्मान है या अपनी जिम्मेदारी से भागने का एक बहाना?
प्रधानमंत्री, राष्ट्रपति और मुख्यमंत्री भी बार-बार अपनी संस्कृति के संरक्षण की बात कहते हैं। लेकिन क्या संस्कृति के संरक्षण का मतलब यह है कि इन मासूम बच्चों को पक्की छत भी न दी जाए, ताकि हम अपनी संस्कृति को “कच्ची झोपड़ी” में सुरक्षित देख सकें?
खुले आसमान के नीचे शिक्षा विभाग की पराकाष्ठा
कसेरु के इस स्कूल के बच्चे वही कोदो-कुटकी खाते हैं, जिसे हाथी भी पचा नहीं सकते। वे खुले आसमान के नीचे पढ़ाई करते हैं। बारिश और धूप उन्हें सहनशीलता और स्वच्छता सिखाती है। इस झोपड़ी के पास नालंदा और तक्षशिला की यादों का बोझ डाला गया है, मगर इसे सुधारने की कोई कोशिश नहीं की गई।
जब वीसी मीटिंग्स वातानुकूलित कक्षों से होती हैं और इसरो के रॉकेट भारत को विश्व गुरु बनाने की दिशा में अग्रसर हैं, तो ये बच्चे हमारी विकास-गाथा  से कोसों दूर क्यों हैं।
गांव और सिस्टमआत्मनिर्भरता की विडंबना
पंचायतों को “आत्मनिर्भर” बनाने का नारा जब कसेरु पंचायत में पहुंचता है, तो यह नारा यहां की झोपड़ी में दम तोड़ देता है। यदि पंचायतें सच में आत्मनिर्भर होतीं, तो शायद इस “दुर्लभ धरोहर” का संरक्षण नहीं कर पातीं।
कसेरु की झोपड़ी सिर्फ एक स्कूल नहीं है। यह आधुनिक विकास की विडंबना का प्रतीक है। यह दिखाती है कि कैसे सरकार और सिस्टम अपनी असफलताओं को “संस्कृति का संरक्षण” कहकर छिपा लेता है।
तो, अगली बार जब आप बांधवगढ़ घूमने जाएं, तो कसेरु पंचायत जरूर जाएं। वहां की झोपड़ी में पढ़ते बच्चों की आंखों में आपको एक सवाल मिलेगा – “क्या यही है हमारा विकास?”

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Kailash Pandey
Anuppur
(M.P.)

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