“लालफीताशाही का कुंडल और सरकारी कामकाज का कुचक्र”
शहडोल जिले के ब्यौहारी नगर परिषद के डीलिंग क्लर्क, अरुण बैस, का मामला सरकारी तंत्र की उस हकीकत को उजागर करता है, जहाँ योजनाओं का सही क्रियान्वयन होते-होते मनमानी, लापरवाही, और आर्थिक शोषण में बदल जाता है। सरकारी दफ्तरों में आम जनता को सेवाएँ देने का दावा भले ही किया जाता हो, लेकिन असलियत में कागजों का घेरा और लालफीता ही राज करता है। अरुण बैस को सामाजिक सुरक्षा निःशक्त पेंशन आवेदन में देरी करने पर नौकरी से हटाया गया, लेकिन सवाल यह है कि इस देरी की असली जड़ कहाँ है?
सरकारी योजना या कागजों का मायाजाल?
सरकार की हर योजना लोगों को सहूलियत देने का दावा करती है। योजनाओं की सूची इतनी लंबी है कि कोई भी आम नागरिक इसे समझने में आधी जिंदगी निकाल दे। अब जैसे इस सामाजिक सुरक्षा निःशक्त पेंशन योजना को ही देख लीजिए—कागजों पर इसे सुचारू रूप से लागू किया गया है, लेकिन ज़मीनी स्तर पर हर कदम पर अड़चनें मौजूद हैं। आवेदक गुलाब चंद्र गुप्ता का आवेदन, जो पेंशन पाने के लिए था, समय पर निस्तारित नहीं हुआ। हर दस्तावेज़ जमा करने, हस्ताक्षर करने, और क्लर्क की कुर्सी के चक्कर लगाने के बाद भी, काम नहीं होता। पब्लिक के मन में यही सवाल उठता है कि कागजों के इस मायाजाल का क्या फायदा है अगर अंततः उसी को ठोकरें खाने के लिए छोड़ दिया जाए?
अनुसूचित जनजाति जिलों में सरकारी उपेक्षा इन जिलों में, चरम पर है। जिलों में मूलभूत सुविधाएँ ही सुलभ नहीं होतीं, और सरकारी योजनाएँ तो अक्सर “कागजों तक सीमित” हो जाती हैं। यह योजनाएँ अनुसूचित जनजाति समुदायों के नाम पर बनाई जाती हैं, लेकिन इन्हें लागू करने वाले अधिकारी शायद ही कभी जनता के लाभ के बारे में सोचते हो । कागजों में योजनाओं की बातें की जाती हैं, नेता जी आते हैं, योजनाओं की घोषणाएँ करते हैं, और फिर वही कहानी वाहवाही लूटकर वापस अपने वातानुकूलित दफ्तरों में लौट जाते हैं ।
अरुण बैस को “कारण बताओ नोटिस” जारी किया गया, जवाब मांगा गया, और जवाब न मिलने पर सेवा से पृथक कर दिया गया। लेकिन असल में यह “कारण बताओ नोटिस” के बाद सेवा समाप्ति शहडोल कलेक्टर श्री केदार सिंह की संवेदना ही थी कि कार्यवाही करने के लिए बाध्य हुए अन्यथा लापरवाहियों पर पर्दा डालने का तरीका है जो शासकीय कार्यालयों में रोज़मर्रा की बात हो चुकी हैं। आम जनता तो एक आवेदन लगाने में परेशान होती है, लेकिन उसी आवेदन का निराकरण समय पर न करना तो मानो सरकारी कर्मचारियों का अधिकार बन चुका है।
अधिकारियों की उदासीनता और जनता का शोषण
सरकार लाख योजनाएँ चलाए, लेकिन जब उन पर अमल करने वाले अधिकारी ही उदासीन हों, तो योजनाओं का असर कहाँ दिखेगा? अधिकारियों के लिए तो यह योजनाएँ सिर्फ ‘फाइल’ हैं, जिन्हें वो सिर्फ ऑफिस के घंटों में उलटते-पलटते रहते हैं। और फिर उन्हीं फाइलों के बीच वो छोटी सी लाइन दब जाती है, जो कहती है “आम जनता की सेवा।” हकीकत में लालफीताशाही और बाबूगिरी का जाल ऐसा बिछा रहता है कि आम नागरिक दफ्तरों के चक्कर काटने में ही थक जाता है।
सरकारी दफ्तरों में योजनाएँ ऐसे चलती हैं मानो फाइलें खुद ही नाच रही हों और कर्मचारी उन्हें लहराते हुए घूमते हों। जनता आवेदन पत्रों के ढेर के नीचे दबी होती है, लेकिन बाबूजी की कुर्सी पर तो आराम फरमा रहे होते हैं। जनता की फरियाद सुनने की बजाय फाइलों में खोए रहते हैं। और अगर कभी सुन भी लें, तो वो फाइल ऐसी जगह रख दी जाती है कि खोजते-खोजते अरुण बैस जैसा कोई और निरीह क्लर्क सजा पा जाए।
अनुसूचित जनजाति जिलों में प्रशासनिक सुधार की जरूरत
यह घटना हमें सोचने पर मजबूर करती है कि आदिवासी जिलों में प्रशासनिक सुधार की कितनी जरूरत है। अगर वहां का प्रशासन जनता की समस्याओं को ध्यान में रखकर काम करे, तो शायद इन जिलों के हालात सुधर सकते हैं। लेकिन जब तक सरकार का ध्यान इन जिलों की वास्तविक समस्याओं पर नहीं होगा, तब तक यह योजनाएँ केवल कागजों में ही सिमटी रहेंगी।
यह घटना बताती है कि कैसे सरकारी कामकाज में लापरवाही और लालफीताशाही का बोलबाला है। अगर इन योजनाओं का सही क्रियान्वयन हो और अधिकारी अपनी जिम्मेदारी का निर्वहन करें, तो जनता का शोषण बंद हो सकता है। लेकिन इसके लिए जरूरी है कि प्रशासन अपने मूल कर्तव्यों को समझे और लालफीताशाही के कुंडल को तोड़े।
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