महात्मा गांधी और मोहम्मद अली जिन्ना, दोनों ही भारतीय उपमहाद्वीप के इतिहास में अत्यधिक महत्वपूर्ण और प्रभावशाली व्यक्तित्व थे। दोनों नेताओं ने स्वतंत्रता संग्राम के दौरान अपने-अपने तरीकों से भूमिका निभाई और उनके कार्यों का गहरा प्रभाव 20वीं सदी के भारत और पाकिस्तान के भविष्य पर पड़ा। गांधी और जिन्ना के बीच कई दृष्टिकोणों और विचारधाराओं में मतभेद थे, जिनके कारण वे विभिन्न रास्तों पर चले गए। हालांकि दोनों का मुख्य उद्देश्य ब्रिटिश साम्राज्यवाद से भारतीय उपमहाद्वीप को मुक्ति दिलाना था, लेकिन उनके रास्ते, दृष्टिकोण और दृष्टिकोण में महत्वपूर्ण भिन्नताएं थीं।
इस तुलनात्मक अध्ययन का उद्देश्य गांधी और जिन्ना के जीवन, विचारधाराओं, कार्यशैली, धार्मिक दृष्टिकोण, राजनीतिक नीतियों और भारत के विभाजन में उनके योगदान का विश्लेषण करना है। इस अध्ययन में उनके बीच के मतभेद और समानताएं दोनों पर गहराई से चर्चा की जाएगी।
1. प्रारंभिक जीवन और शिक्षा:
महात्मा गांधी का जन्म 2 अक्टूबर 1869 को पोरबंदर, गुजरात में हुआ था। उनका पूरा नाम मोहनदास करमचंद गांधी था। गांधी एक साधारण परिवार से थे और उनकी शिक्षा-दीक्षा भी सामान्य रही। उन्होंने कानून की पढ़ाई करने के लिए इंग्लैंड का रुख किया और वहां से बैरिस्टर की डिग्री हासिल की। दक्षिण अफ्रीका में अपने प्रवास के दौरान गांधी ने रंगभेद के खिलाफ संघर्ष किया और यहीं से उन्हें सत्याग्रह और अहिंसा की शक्ति का अनुभव हुआ।
मोहम्मद अली जिन्ना का जन्म 25 दिसंबर 1876 को कराची में हुआ था। उनका परिवार व्यवसायिक था और वे एक अमीर व्यापारी वर्ग से थे। जिन्ना ने भी कानून की पढ़ाई के लिए इंग्लैंड का रुख किया और वे एक सफल बैरिस्टर बने। वे बेहद बुद्धिमान और दृढ़ निश्चयी व्यक्ति थे। उन्होंने अपनी कानूनी विशेषज्ञता और अंग्रेजी कानून की गहरी समझ के माध्यम से भारतीय राजनीति में कदम रखा।
2. राजनीतिक करियर का आरंभ:
महात्मा गांधी ने दक्षिण अफ्रीका से लौटने के बाद भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस में प्रवेश किया और भारतीय स्वतंत्रता आंदोलन में सक्रिय रूप से भाग लिया। उनका नेतृत्व शांतिपूर्ण प्रतिरोध, सत्याग्रह, और अहिंसा पर आधारित था। गांधी का मानना था कि हिंसा से कभी भी सच्ची स्वतंत्रता प्राप्त नहीं की जा सकती और इसलिए उन्होंने हमेशा अहिंसात्मक आंदोलन का समर्थन किया। उनका पहला बड़ा आंदोलन चंपारण में नील किसानों के अधिकारों के लिए था, जहां उन्होंने अंग्रेजों की नीतियों का अहिंसात्मक विरोध किया।
मोहम्मद अली जिन्ना ने अपने राजनीतिक करियर की शुरुआत भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस से की। शुरू में वे एक धर्मनिरपेक्ष नेता थे और हिंदू-मुस्लिम एकता के प्रबल समर्थक थे। वे 1916 के लखनऊ समझौते के तहत हिंदू-मुस्लिम एकता के प्रतीक बने, जिसमें कांग्रेस और मुस्लिम लीग के बीच एक महत्वपूर्ण राजनीतिक समझौता हुआ। हालांकि, समय के साथ जिन्ना की धारणाएं बदल गईं और वे मुस्लिम लीग के प्रमुख नेता बन गए, जो मुसलमानों के लिए एक अलग राष्ट्र पाकिस्तान की मांग के समर्थक बने।
3. धार्मिक दृष्टिकोण:
महात्मा गांधी धर्म को मानव जीवन का अभिन्न अंग मानते थे। वे हिंदू धर्म के अनुयायी थे, लेकिन उन्होंने हमेशा सभी धर्मों का सम्मान किया और धर्मनिरपेक्षता का समर्थन किया। गांधी का मानना था कि धर्म और राजनीति को अलग नहीं किया जा सकता, क्योंकि धर्म नैतिकता का आधार है। लेकिन वे यह भी मानते थे कि सभी धर्म समान हैं और किसी भी धर्म को राजनीति का हथियार नहीं बनाना चाहिए। उन्होंने “रघुपति राघव राजा राम” जैसे भजनों के माध्यम से धार्मिक सौहार्द्र का संदेश दिया।
मोहम्मद अली जिन्ना धर्मनिरपेक्षता के शुरुआती समर्थक थे, लेकिन बाद में उन्होंने मुसलमानों के अधिकारों की रक्षा के लिए धर्म को राजनीति का हिस्सा बना लिया। उन्होंने मुस्लिम लीग का नेतृत्व करते हुए यह दावा किया कि हिंदू और मुसलमान दो अलग-अलग राष्ट्र हैं और इसलिए उनके लिए अलग-अलग राजनीतिक व्यवस्थाएं होनी चाहिए। जिन्ना ने इस्लामिक सिद्धांतों के आधार पर पाकिस्तान की स्थापना की वकालत की, लेकिन वे खुद व्यक्तिगत रूप से धर्मनिरपेक्ष थे और धार्मिक कट्टरता के खिलाफ थे।
4. नेतृत्व शैली:
महात्मा गांधी का नेतृत्व पूरी तरह से जन-आधारित था। वे जनता के बीच जाकर उनकी समस्याओं को सुनते और समझते थे। उनके आंदोलन जनता की भागीदारी पर आधारित थे, चाहे वह असहयोग आंदोलन हो, सविनय अवज्ञा आंदोलन या फिर भारत छोड़ो आंदोलन। गांधी ने ग्रामीण भारत की समस्याओं पर विशेष ध्यान दिया और खादी, स्वदेशी और ग्राम स्वराज जैसे सिद्धांतों का प्रचार किया। उनके नेतृत्व में आंदोलनों का उद्देश्य न केवल स्वतंत्रता प्राप्त करना था, बल्कि समाज में नैतिक और आर्थिक सुधार लाना भी था।
मोहम्मद अली जिन्ना का नेतृत्व ज्यादा कानूनी और औपचारिक था। वे एक सख्त और दृढ़ निश्चयी नेता थे, जिनका ध्यान मुसलमानों के राजनीतिक अधिकारों की रक्षा पर था। उनका दृष्टिकोण पश्चिमी राजनीतिक सिद्धांतों पर आधारित था और वे भारतीय समाज की पारंपरिक संरचनाओं से अधिक प्रभावित नहीं थे। जिन्ना ने मुस्लिम लीग के माध्यम से मुसलमानों के लिए एक अलग राजनीतिक पहचान की मांग की और इस लक्ष्य को प्राप्त करने के लिए वे किसी भी समझौते को तैयार नहीं थे।
5. स्वतंत्रता संग्राम और राजनीतिक दृष्टिकोण:
महात्मा गांधी का लक्ष्य एक स्वतंत्र, धर्मनिरपेक्ष और अखंड भारत था। उन्होंने हमेशा हिंदू-मुस्लिम एकता का समर्थन किया और मानते थे कि भारत की स्वतंत्रता तभी पूर्ण हो सकती है जब दोनों समुदाय एक साथ मिलकर काम करें। गांधीजी ने स्वराज की अवधारणा पर जोर दिया, जिसमें भारत को ब्रिटिश शासन से स्वतंत्रता प्राप्त करनी थी, लेकिन यह स्वतंत्रता अहिंसा और नैतिकता के आधार पर होनी चाहिए। उन्होंने कई बार ब्रिटिश सरकार से बातचीत की, लेकिन जब भी उन्होंने महसूस किया कि भारतीय जनता के साथ अन्याय हो रहा है, उन्होंने अहिंसात्मक प्रतिरोध का मार्ग अपनाया।
मोहम्मद अली जिन्ना का लक्ष्य मुस्लिमों के लिए एक अलग राष्ट्र की स्थापना करना था, जहां वे अपने धार्मिक और सांस्कृतिक पहचान को सुरक्षित रख सकें। जिन्ना ने शुरू में कांग्रेस के साथ काम किया, लेकिन बाद में उन्होंने महसूस किया कि कांग्रेस मुस्लिमों के हितों की अनदेखी कर रही है। जिन्ना ने मुस्लिम लीग के माध्यम से मुस्लिमों के अधिकारों की लड़ाई लड़ी और “दो-राष्ट्र सिद्धांत” को बढ़ावा दिया। उनका मानना था कि हिंदू और मुसलमान दो अलग-अलग सभ्यताएं हैं, जो एक साथ एक राष्ट्र के रूप में नहीं रह सकतीं।
6. भारत विभाजन:
भारत विभाजन के मुद्दे पर गांधी और जिन्ना के बीच सबसे बड़ा अंतर था।
महात्मा गांधी भारत के विभाजन के सख्त खिलाफ थे। उन्होंने हमेशा अखंड भारत की वकालत की और मानते थे कि हिंदू-मुस्लिम एकता से ही भारत की स्वतंत्रता संभव है। गांधीजी ने विभाजन को रोकने के लिए आखिरी समय तक प्रयास किया और यहां तक कि 1947 में विभाजन के समय भी वे बेहद दुखी थे। उनके अनुसार, विभाजन एक अस्थायी समाधान था जो अंततः हिंसा और विनाश का कारण बनेगा।
मोहम्मद अली जिन्ना, इसके विपरीत, विभाजन के प्रबल समर्थक बन गए। उन्होंने 1940 में लाहौर प्रस्ताव में पाकिस्तान की मांग को औपचारिक रूप दिया और विभाजन के बिना स्वतंत्रता को असंभव माना। जिन्ना का तर्क था कि मुसलमानों को अपनी धार्मिक और सांस्कृतिक पहचान की रक्षा के लिए एक अलग राष्ट्र चाहिए। उनके नेतृत्व में मुस्लिम लीग ने पाकिस्तान के लिए जोरदार अभियान चलाया और अंततः भारत का विभाजन हुआ।
7. विभाजन के बाद का दृष्टिकोण:
महात्मा गांधी विभाजन के बाद भी शांति और सद्भाव की अपील करते रहे। उन्होंने हिंदू-मुस्लिम दंगों को रोकने के लिए देश के विभिन्न हिस्सों में यात्रा की और दिल्ली में उपवास तक किया। गांधीजी का मानना था कि विभाजन के बावजूद भारत और पाकिस्तान को शांतिपूर्ण सहअस्तित्व के सिद्धांत पर काम करना चाहिए। वे मानवता, प्रेम और अहिंसा के पक्षधर थे और विभाजन के बाद भी इन मूल्यों को बनाए रखने के लिए प्रयासरत रहे।
मोहम्मद अली जिन्ना ने विभाजन के बाद पाकिस्तान के पहले गवर्नर-जनरल के रूप में कार्यभार संभाला। जिन्ना ने पाकिस्तान को एक धर्मनिरपेक्ष राज्य बनाने की बात कही, जहां सभी धार्मिक समुदायों को समान अधिकार मिले। हालांकि, पाकिस्तान का निर्माण धार्मिक आधार पर हुआ था, जिन्ना का दृष्टिकोण हमेशा से यह था कि राज्य को धर्म से अलग रहना चाहिए और सभी नागरिकों को समान अधिकार मिलना चाहिए।
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