
मानव सभ्यता की सबसे बड़ी ताक़त उसकी संवेदना मानी जाती है—माँ का आँचल, पिता का सहारा, भाई का कंधा और समाज की सामूहिक करुणा। लेकिन जब आपदा इंसानियत से बड़ी हो जाए और करुणा कैमरे की स्क्रीन में क़ैद होकर रह जाए, तब दृश्य सिर्फ़ एक त्रासदी नहीं, बल्कि आत्मा को झकझोर देने वाला सवाल बन जाता है।
चारों ओर बाढ़ का तेज़ बहाव…पानी में तैरते हुए टूटे मकान, डूबे खेत, और हर ओर चीख़-पुकार। हवा में काई और गाद की गंध, कहीं बच्चों की रुलाई, कहीं बुज़ुर्गों की बेबसी की कराह।
इसी त्रासदी के बीच, एक अबोध बच्चा—भीगे कपड़ों में काँपता हुआ—अपनी मृत माँ के निर्जीव शरीर को दोनों हाथों से खींचकर पानी से बाहर निकालने की कोशिश करता है। उसकी आँखों में उम्मीद की चमक है, शायद यह यक़ीन कि माँ उठकर उसे गोद में भर लेंगी।
बच्चे की टूटी-फूटी आवाज़ बार-बार पुकारती है—
“माँ…माँ उठो ना…”
लेकिन पानी की लहरें उस पुकार को डुबो देती हैं।
परिवेश और समाज का आईना
चारों ओर खड़े लोग तमाशबीन हैं। किसी के हाथ में मोबाइल कैमरा, कोई लाइव वीडियो बना रहा है, कोई तस्वीरें खींच रहा है। वहाँ इंसानियत गुम थी, करुणा मृतप्राय थी, और संवेदनाएँ तकनीक की स्क्रीन पर ठंडी हो चुकी थीं।
यह दृश्य सिर्फ़ उस माँ की मौत नहीं था—यह समाज की सामूहिक संवेदनाओं का अंतिम संस्कार था।
माँ की ममता और बाल मन की करुणा
माँ की ममता की पहचान यही है कि वह आख़िरी साँस तक बच्चे को बचाना चाहती है। और अबोध बाल मन की पहचान यह है कि उसे यक़ीन होता है—माँ कभी नहीं मर सकती। इस बच्चे के मन में भी वही अबोध विश्वास था। लेकिन जब समाज मौन हो जाए और मददगार हाथ वीडियो बनाने में व्यस्त हो जाएँ, तब मासूम उम्मीदें भी डूब जाती हैं।
यह घटना हमें यह सोचने पर मजबूर करती है
क्या बाढ़ ने सिर्फ़ इंसानों को बहाया है, या हमारी इंसानियत को भी बहा ले गई है?


Leave a Reply