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लीला के दर्द पर संवेदना नहीं, सत्ताधीशों का ठहाका – सड़क नहीं, ‘उठवा लेने’ की सुविधा मिलेगी!

लीला के दर्द पर संवेदना नहीं, सत्ताधीशों का ठहाका – सड़क नहीं, ‘उठवा लेने’ की सुविधा मिलेगी!

“तारीख बताओ, उठवा लेंगे!” — जब गर्भवती लीला ने सड़क मांगी और सांसद ने प्रसव पूर्व ‘पिकअप सर्विस’ ऑफर कर दी!

मध्य प्रदेश के सीधी जिले की राजनीति इन दिनों भ्रूण स्तर तक उतर आई है — और यह कोई मुहावरा नहीं, हकीकत है। जब लीला साहू नामक 9 महीने की गर्भवती महिला ने गांव में सड़क बनाने की मांग उठाई, तो भाजपा सांसद डॉ. राजेश मिश्रा ने जिस अंदाज़ में ‘लोकसेवा’ का परिचय दिया, वह खुद लोकतंत्र के स्वास्थ्य को प्रसवपूर्व जटिलता में डाल गया।

तारीख बताओ… उठवा लेंगे!”
जब लीला ने बताया कि सड़क न होने से प्रसव के लिए अस्पताल ले जाना संभव नहीं। इसपर सांसद जी ने सड़क नहीं, बल्कि ‘डिलीवरी डेट’ पूछ ली।

तारीख बताओ, एक हफ्ता पहले उठवा लेंगे।”
यह वाक्य सोशल मीडिया चारों तरफ गूंज रहा है
यह सुनकर गांव वालों को लगा कि शायद अब जनप्रतिनिधि एम्बुलेंस भी नहीं, खुद ‘विधायी डोला’ लेकर आएंगे — एक हफ्ता पहले
लीला साहू कोई नेता नहीं, कोई ट्रोलिंग कैम्पेन की मुखिया नहीं। वह सिर्फ एक गर्भवती ग्रामीण महिला है जो उस देश में सड़क मांग रही थी जहाँ 2024 में ‘चंद्रयान-3’ चाँद पर पहुंच चुका है लेकिन उसका गांव अभी भी कच्चे रास्तों और कीचड़ से लथपथ है।

मंत्री राकेश सिंह ने भी मामले को टका-सा जवाब देकर निपटा दिया

“कोई भी कुछ सोशल मीडिया पर डाल देगा तो क्या हम सब मान लेंगे?”

बिल्कुल सही बात! अगर हम हर उस पोस्ट को मानने लगें जिसमें इंसानी पीड़ा और प्रशासनिक असंवेदनशीलता उभरती है, तो फिर सत्ता की ‘प्रेरणा’ कहां से बचेगी?

उठवा लेंगे’ — लोकतंत्र का नया सेवा वाक्य?
राजनीतिक शब्दकोश में अब “उठवा लेना” शायद नई संवैधानिक व्यवस्था बन गया है। पहले विपक्षी नेताओं को उठवाया जाता था, फिर पत्रकारों को, और अब लगता है – प्रसूताओं की बारी है!

यदि यह ट्रेंड आगे बढ़ा, तो आने वाले चुनावी घोषणापत्रों में “प्रसवपूर्व उठवाने की गारंटी योजना” शामिल हो सकती है।
नारा होगा

सड़क न सही, उठवाने की सुविधा तो देंगे!”

“क्या मैं सिर्फ जनसंख्या हूं या नागरिक भी हूं? क्या मेरी कोख में पल रही जान की कीमत सिर्फ वोट तक सीमित है?”

और यह सवाल सिर्फ सीधी जिले से नहीं, देशभर की उन हजारों लीलाओं से आता है जो आज भी 75 साल की आज़ादी के बाद कीचड़ से होकर प्रसव पीड़ा में गुजरती हैं।

आखिर में एक सुझाव
माननीय सांसद जी, अगली बार कोई सड़क मांगे, तो उसकी गर्भावस्था नहीं, उसकी ज़रूरत देखिए। डिलीवरी की तारीख नहीं, विकास की तारीख तय कीजिए।

और अगर सड़क नहीं बन सकती — तो कम से कम “उठवा लेने” की भाषा को लोकतंत्र से निष्कासित जरूर कीजिए।

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(M.P.)

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