
“भारत में घटती प्रजनन दर सनातन परिवार प्रणाली के सामने नये युग की चुनौती”
नई दिल्ली।
भारत में 2001 से 2021 के बीच प्रजनन दर (fertility rate) में ऐतिहासिक गिरावट दर्ज की गई है। एक ओर यह गिरावट शिक्षा, आर्थिक विकास और स्वास्थ्य सेवाओं की सफलता को दर्शाती है, तो दूसरी ओर सनातन हिन्दू परिवार व्यवस्था के लिए यह एक गंभीर सांस्कृतिक और जनांकिकीय (demographic) चेतावनी बनकर उभरी है।
प्रजनन दर में गिरावट आंकड़ों की तस्वीर
भारत की कुल प्रजनन दर 2001 में जहाँ 3.1 बच्चे प्रति महिला थी, वहीं 2021 तक यह घटकर 2.0 तक पहुँच गई — जो जनसंख्या स्थिरता स्तर (2.1) से भी नीचे है।
सनातन परिवार व्यवस्था पर असर
सनातन परंपरा में परिवार न केवल जैविक संस्था है, बल्कि आध्यात्मिक, सामाजिक और सांस्कृतिक इकाई भी है।
परिवार को ‘गृहस्थ आश्रम’ की मूल भावना माना गया है, जिसमें संतान न केवल कुल परंपरा को आगे बढ़ाती है, बल्कि ‘पितृ ऋण’ की पूर्ति का भी माध्यम होती है।
लेकिन बदलती सामाजिक संरचना, महिलाओं की शिक्षा, आर्थिक प्राथमिकताएँ और शहरी जीवनशैली ने संतान संख्या को निजी निर्णय का विषय बना दिया है, जिससे सनातन मूल्यों में बदलाव देखा जा रहा है।
गिरावट के 10 प्रमुख कारण
1. महिलाओं की शिक्षा में वृद्धि: उच्च शिक्षा प्राप्त महिलाएँ देर से विवाह कर रही हैं और सीमित संतान चाहती हैं।
2. परिवार नियोजन की सुविधा: गर्भनिरोधक साधनों की आसान उपलब्धता।
3. शहरीकरण छोटे मकान, ऊँची जीवन लागत और व्यस्त जीवनशैली।
4. आर्थिक सोच बच्चों की शिक्षा, स्वास्थ्य और जीवन-स्तर में निवेश के कारण सीमित परिवार की प्रवृत्ति।
5. सरकारी प्रचार “हम दो, हमारे दो” जैसी नीति।
6. सामाजिक बदलाव विवाह और मातृत्व को अब ‘विकल्प’ के रूप में देखा जा रहा है।
7. स्वास्थ्य सेवाएँ बेहतर बच्चों की मृत्यु दर कम होने से अधिक संतान की आवश्यकता नहीं।
8. कार्यस्थल पर महिलाओं की भागीदारी मातृत्व को टालने या सीमित करने की प्रवृत्ति।
9. शादी और मातृत्व में देरी खासकर शहरी शिक्षित समाज में।
10. जनसंख्या नियंत्रण के क्षेत्रीय अभियान खासकर बिहार, यूपी और मध्यप्रदेश जैसे राज्यों में।
धार्मिक और सांस्कृतिक दृष्टिकोण से चिंता
हिंदू समाज में पारंपरिक रूप से परिवार को धर्म, अर्थ, काम और मोक्ष की यात्रा का पहला मंच माना गया है।
‘पुत्रेषणा’ (संतान की कामना) को वैदिक ऋषियों ने प्राकृतिक और आध्यात्मिक कर्तव्य बताया है।
लेकिन अब अनेक शहरी परिवारों में संतानहीन जीवन को स्वतंत्रता और सुविधा से जोड़ा जा रहा है — जो सनातन जीवन दर्शन से भटकाव का संकेत देता है।
संस्कृति और प्रजनन दर का द्वंद्व
वर्तमान जनसांख्यिकीय बदलाव एक ओर महिला सशक्तिकरण और प्रगति का संकेत देता है, परन्तु दूसरी ओर सनातनी सामाजिक संरचना को संख्यात्मक असंतुलन और सामाजिक अकेलेपन की ओर भी धकेल सकता है।
छोटे परिवार, एकल माता-पिता, और ‘नो किड्स’ जैसे ट्रेंड भारत की समूह केंद्रित संस्कृति के लिए एक गहरी चुनौती बन रहे हैं।
जनसंख्या असंतुलन और भविष्य
विशेषज्ञों का कहना है कि यदि यह प्रवृत्ति बनी रही तो आने वाले 20 वर्षों में भारत में कामकाजी आबादी घटेगी, बुजुर्गों की संख्या बढ़ेगी और जनसंख्या संरचना पिरामिड के बजाय उलटी हो जाएगी, जो चीनी मॉडल की ओर इशारा करता है — जहाँ जनसंख्या में वृद्धों का अनुपात बहुत अधिक है।
अब समय है जब सनातन संस्कृति के वाहक, धर्मगुरु और नीति निर्माता परिवार संस्था की पुनर्स्थापना के लिए सामाजिक अभियान चलाएँ।
विवाह, संतान और ‘गृहस्थ धर्म’ को फिर से गरिमा और गौरव का विषय बनाया जाए।
साथ ही, शिक्षा और जीवनशैली में संतुलन बनाते हुए धार्मिक, सांस्कृतिक और जनांकिकीय संतुलन पर संवाद शुरू करना होगा।
भारत की घटती प्रजनन दर केवल आंकड़ों का विषय नहीं, यह एक सभ्यता का दर्पण है — जिसमें परंपरा और आधुनिकता के बीच tug of war चल रही है।
यदि संतुलन नहीं बनाया गया, तो आने वाला समय आर्थिक रूप से मजबूत लेकिन सांस्कृतिक रूप से कमजोर भारत का संकेत दे सकता है।



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