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कोतमा की बिखरी स्वास्थ्य व्यवस्था पर जनता का रोष: बीमारी के दहलीज पर असहाय चेहरों का दर्द

कोतमा की बिखरी स्वास्थ्य व्यवस्था पर जनता का रोष: बीमारी के दहलीज पर असहाय चेहरों का दर्द


कोतमा नगर –
यहां की स्वास्थ्य व्यवस्था अब स्वप्निल कहानियों में ही जिंदा रहती दिख रही है। एक पुत्र, जो अपने पिता की असहाय विदाई पर फुट-फूटकर रो रहा था, ने कोतमा की निजी क्लीनिक और सरकारी स्वास्थ्य व्यवस्था की बदहाली की मर्मस्पर्शी तस्वीर पेश कर दी। वीडियो वायरल होने के बाद भी जिम्मेदार अधिकारियों का रवैया बदलने के बजाय, घटना के साये में डॉक्टरों की गायब होने और बंद पड़े क्लीनिक को सिर्फ रूटीन जांच का बहाना बनाकर खोल कर फिर सील कर देना, सवालों की एक नई कतार खड़ी कर देता है।
मृत्यु और बेरहमी की जुदाई:
उस दर्दनाक दिन को याद करिए,जब भूख हड़तालियों को बिना उचित जांच के “अनफिट” घोषित कर रेफर किया गया, अस्पताल के अंदर एक पुत्र अपने पिता की मौत पर ठोकर खाते हुए आंसुओं के सैलाब में बह रहा है। कोतमा स्वास्थ्य केंद्र में देवशरण को न तो इलाज मिला और न ही मृतक भूषण गुप्ता को – एक दर्दनाक साक्ष्य कि मानवता अब आधिकारिक दस्तावेजों की कतार में दब गई है।
रेफर सेंटर का काम और बेमेल इंसाफ
रेफर सेंटर की एंबुलेंस ने अपना तो कर्तव्य निभाया – एक मरीज, जिसे रेफर के बाद रास्ते में मौत ने अपनी चपेट में ले लिया, वापस लाया गया; वहीं दूसरी ओर, स्वास्थ्य सुधार की मांग में 4 दिन भूखे रहने वाला मरीज बिना किसी बीमारी के “अनफिट” घोषित होकर अनूपपुर तक जिंदा छोड़ दिया गया। अगला दिन, उसका स्वास्थ्य ठीक होकर ट्रेन से वापस आ जाना इस बात का जंगली सबूत है कि न तो इलाज में गुणवत्ता है और न ही स्वास्थ्य प्रणाली में संवेदनशीलता।
जब बंद क्लीनिक की खुली निगरानी होती है, लेकिन शिकायतों की अनदेखी कर दी जाती हैं
अफसोस की बात यह है कि अधिकारियों ने मौत के बाद वायरल वीडियो के शोरगुल पर एक बंद क्लीनिक को खुलवाकर उसे सील कर दिया – यह प्रक्रिया देखकर ऐसा लगता है मानो व्यवस्था में शिकायत की कोई जरूरत ही नहीं। जिस घर में मौत आई हो, वहाँ पहले दाह संस्कार या तेरहवीं बरसी की चिंता होती है, और फिर न्याय की अपेक्षा की जाती है। लेकिन जब शिकायत करने का प्रयास किया जाता है, तो उसे ठंडे मुंह से नकार दिया जाता है।
क्या कोतमा के मृतकों के परिवार को न्याय दिलाने की उम्मीद की जा सकती है? या फिर यह व्यवस्था बस एक नए मुहाने के साथ पुराने घावों को और गहरा कर देगी?
डॉक्टर अमीर हो सकते हैं, पर अमर नहीं
सरकारी डॉक्टर अपनी निजी क्लीनिकों में व्यस्त हैं, जबकि सरकारी स्वास्थ्य केंद्र और डॉक्टरों की हवेलियाँ इस व्यवस्था की मौजूदा हकीकत का क्रूर प्रमाण हैं। इस क्षेत्र में न केवल स्वास्थ्य सेवाओं का अभाव है, बल्कि इंसानियत की भी परतें धीरे-धीरे उतरती जा रही हैं।
यह भूल गए कि धन से इंसान अमर नहीं हो सकता – असली अमरता तो मानवीय संवेदना और न्याय में है। सवाल उठता है कि आखिर नियंत्रण के बाहर क्यों जा रही है यह व्यवस्था, और जब तक जिम्मेदार अधिकारियों को जवाबदेह नहीं ठहराया जाएगा, तब तक पीड़ित जनता का दर्द और भी गहरा होता जाएगा।
कोतमा की इस घटना ने एक बार फिर यह सवाल खड़ा कर दिया है कि क्या हम ऐसी स्वास्थ्य व्यवस्था में विश्वास कर सकते हैं, जहां इंसान की जिंदगी को केवल एक औपचारिक प्रक्रिया में बदल दिया जाता है। मृतकों के परिवारों का दुख, जो उनके लिए न्याय की उम्मीद बनकर रह जाता है, उस व्यवस्था की कड़वी सच्चाई है।
क्या इस दुखद  घटना से कोई सबक लेकर,जिला चिकित्सा एवं स्वास्थ अधिकारी डॉक्टर आर के वर्मा स्वास्थ्य व्यवस्था में वास्तविक सुधार करने का प्रयास करेंगे , या फिर यह सिर्फ एक और अनसुनी घटना बनकर रह जाएगी?

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