
ववर्ष की पौराणिक एवं ऐतिहासिक पृष्ठभूमि
आज, 30 मार्च 2025 से नववर्ष विक्रम संवत 2082 का शुभारंभ हो रहा है। यह नव संवत्सर ‘सिद्धार्थी’ नाम से जाना जाएगा। विक्रम संवत की गणना चंद्र-सौर पंचांग पर आधारित होती है, जिसमें चैत्र मास की शुक्ल प्रतिपदा तिथि से नए वर्ष की शुरुआत मानी जाती है। पौराणिक मान्यता के अनुसार, इसी दिन ब्रह्मा जी ने सृष्टि की रचना की थी, और इसी कारण यह तिथि नववर्ष के रूप में मनाई जाती है।
हिंदू नववर्ष की गणना विक्रम संवत के आधार पर होती है, जिसका प्रारंभ महाराजा विक्रमादित्य ने किया था। यह संवत चैत्र शुक्ल प्रतिपदा से आरंभ होता है और इसे नव संवत्सर कहा जाता है। यह काल भारतीय संस्कृति में अत्यंत महत्वपूर्ण माना जाता है क्योंकि इसी समय ब्रह्मा जी ने सृष्टि का सृजन किया था। अतः यह काल सृजन, नवचेतना और आत्मोत्थान का प्रतीक है।

विक्रम संवत की स्थापना और पंचांग निर्माण
विक्रम संवत की शुरुआत उज्जयिनी के महान सम्राट विक्रमादित्य ने 57 ईसा पूर्व में की थी। उन्होंने मालवा क्षेत्र में शकों पर विजय प्राप्त करने के बाद इस संवत की स्थापना की। इस पंचांग को अत्यंत वैज्ञानिक रूप से तैयार किया गया था, जिसमें चंद्र और सौर गणनाओं का विशेष समावेश किया गया। भारतीय खगोलविदों और ज्योतिषाचार्यों ने इसे अत्यधिक सटीकता के साथ निर्मित किया, जिससे ऋतु परिवर्तन, धार्मिक अनुष्ठानों और कृषि चक्र का उचित समायोजन किया जा सके।
विक्रमादित्य के समकालीन विद्वान एवं आचार्य
विक्रमादित्य के शासनकाल में कई महान विद्वान, आचार्य और ज्योतिषाचार्य थे, जिन्होंने विक्रम संवत की कालगणना में महत्वपूर्ण योगदान दिया। इनमें प्रमुख नाम इस प्रकार हैं:
वराहमिहिर – वे महान ज्योतिषी और गणितज्ञ थे, जिन्होंने ‘बृहत्संहिता’ और ‘पंचसिद्धांतिका’ जैसी महान कृतियाँ लिखीं। उनकी खगोलीय गणनाएँ विक्रम संवत की नींव का आधार बनीं।
कालीदास – महान कवि और नाटककार, जिन्होंने समय की गणना और ज्योतिष पर विशेष अध्ययन किया। उन्होंने ‘ज्योतिषशास्त्र’ पर अपने साहित्य में कई उल्लेख किए।
भट्टोत्पल – ज्योतिषाचार्य, जिन्होंने वराहमिहिर की कृतियों पर भाष्य लिखा और उनके सिद्धांतों को आगे बढ़ाया।
अमर सिंह – संस्कृत कोशकार, जिन्होंने वैदिक कालगणना से संबंधित कई शोध किए।
क्षपणक – वे ज्योतिष एवं खगोलशास्त्र के विशेषज्ञ थे, जिन्होंने पंचांग गणना को विकसित करने में योगदान दिया।
घटखर्पर – वे गणित और ज्योतिष के विद्वान थे, जिन्होंने कालचक्र सिद्धांत विकसित किया।
वररुचि – व्याकरण और गणित के प्रकांड पंडित, जिन्होंने ज्योतिषीय गणनाओं को विकसित किया।
धन्वंतरि – आयुर्वेदाचार्य, जिन्होंने विक्रम संवत में स्वास्थ्य और ऋतु चक्र पर आधारित आहार-विहार संबंधी नियमों को स्थापित किया।
विक्रमादित्य के अलावा अन्य सम्राटों द्वारा स्थापित संवत
भारत के इतिहास में अन्य कई सम्राटों ने अपने नाम से संवत (कालगणना) की शुरुआत की शक संवत (78 ईस्वी) – सम्राट कनिष्क ने इसे प्रारंभ किया। यह भारतीय गणना प्रणाली का एक महत्वपूर्ण संवत है, जो मुख्यतः बौद्ध परंपरा से जुड़ा हुआ है। इसे भारत सरकार द्वारा राष्ट्रीय पंचांग के रूप में भी अपनाया गया है।
गुप्त संवत (319 ईस्वी) – इसे गुप्त वंश के संस्थापक चंद्रगुप्त प्रथम ने प्रारंभ किया था। इस संवत का उपयोग मुख्यतः गुप्त प्रशासन और शासन प्रणाली के काल निर्धारण में किया जाता था।
हर्ष संवत (606 ईस्वी) – हर्षवर्धन ने इस संवत की शुरुआत की थी, लेकिन यह व्यापक रूप से लोकप्रिय नहीं हो पाया।
कलचुरी संवत (248 ईस्वी) – इसे कलचुरी वंश के राजाओं ने प्रारंभ किया था। यह मुख्य रूप से दक्षिण भारत और मध्य भारत में प्रयोग किया जाता था।
चोल संवत – दक्षिण भारत के चोल शासकों द्वारा प्रयोग किया गया संवत, जो उनके प्रशासनिक दस्तावेजों में मिलता है।
लक्ष्मण सेन संवत (1119 ईस्वी) – बंगाल के सेन वंश के शासक लक्ष्मण सेन द्वारा प्रारंभ किया गया।
त्रिकुटक संवत – महाराष्ट्र और दक्षिण भारत के कुछ भागों में प्रचलित था।
सत संवत आरंभ करने के लिए आवश्यक आयोजन एवं योग्य सम्राट
विक्रम संवत जैसे किसी भी नए संवत को आरंभ करने के लिए तत्कालीन सम्राट को निम्नलिखित प्रमुख आयोजन करने होते थे:

युद्ध विजय और स्थायित्व – नया संवत आरंभ करने के लिए सम्राट को अपनी सत्ता को स्थिर और सुदृढ़ बनाना आवश्यक होता था।
राज्याभिषेक और यज्ञ अनुष्ठान – नए संवत का शुभारंभ वैदिक अनुष्ठानों और यज्ञों के माध्यम से किया जाता था, जिसमें ब्राह्मण, ऋषि-मुनि और विद्वानों की उपस्थिति अनिवार्य होती थी।
खगोलशास्त्रीय गणना – संवत आरंभ करने से पहले ज्योतिषाचार्यों और गणितज्ञों द्वारा खगोलीय स्थिति, ग्रहों की दशा और पंचांग का विशेष अध्ययन किया जाता था।
धार्मिक एवं सांस्कृतिक आयोजन – राज्यभर में नए संवत की घोषणा के लिए भव्य समारोह आयोजित किए जाते थे।
नया पंचांग निर्माण – संवत प्रारंभ करने के लिए एक नवीन पंचांग का निर्माण किया जाता था।


समाज एवं अर्थव्यवस्था का पुनर्निर्माण – नया संवत एक नए युग के आरंभ का प्रतीक होता था।
हिंदू नववर्ष और नवरात्रि केवल धार्मिक पर्व नहीं, बल्कि आध्यात्मिक, वैज्ञानिक और स्वास्थ्य की दृष्टि से भी अत्यंत लाभकारी हैं। यह एक ऐसा समय है, जब व्यक्ति स्वयं को आत्मसात कर सकता है और अपनी ऊर्जा को उच्चतम स्तर तक पहुंचा सकता है। आर्ष ग्रंथों में वर्णित शक्ति आराधना न केवल आध्यात्मिक रूप से बल्कि वैज्ञानिक दृष्टिकोण से भी मानव जीवन के लिए आवश्यक है। साथ ही, भारत के कई सम्राटों ने अपनी विजय और प्रशासनिक सुधारों को चिरस्थायी बनाने के लिए अपने-अपने संवत की शुरुआत की, जो भारतीय कालगणना प्रणाली का अभिन्न अंग हैं।



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