
कोतमा के अनाथ फरिश्ते निर्दयी समाज में खोती मासूमियत
अनूपपुर कोतमा की पुरानी बस्ती में एक छोटे से घर में अब केवल सिसकियों की गूंज बाकी है। चारदीवारी के भीतर अब न कोई पिता की पुकार है, न मां की ममता की छांव। तीन जोड़ी मासूम आंखें हर आने-जाने वाले को टकटकी लगाए देखती हैं, मानो पूछ रही हों— क्या तुम हमारे पिता को लौटा सकते हो?
विक्की केवट की हत्या सिर्फ एक इंसान की मौत नहीं थी, यह एक परिवार के पूरे अस्तित्व को नष्ट करने की क्रूर साजिश थी। वह तीन नन्ही जिंदगियों का एकमात्र सहारा था, जिन्हें अब इस दुनिया में न कोई मां पुकारने वाली है, न कोई पिता की उंगली थामने वाली हथेली।
मां घर छोड़कर कहीं चली गई पिता की हत्या—कर दी गई किस्मत ने छीन लिया सब कुछ

निधि (10 वर्ष), विधि (8 वर्ष) और अरमान (4 वर्ष)— तीन अबोध आत्माएं, जिन्हें अभी इस दुनिया का मतलब भी ठीक से समझ में नहीं आया था, उनके साथ ऐसा क्रूर मजाक हुआ, जिसकी भरपाई शायद कभी संभव नहीं।
इन तीनों मासूमों की मां सालों पहले ही उन्हें छोड़कर कहीं चली गई थी। वे पिता विक्की केवट, दादा पन्नू लाल (77 वर्ष) और दादी बुधवतीया (70 वर्ष) के सहारे पल रहे थे। लेकिन 15 मार्च की रात ने उनकी दुनिया को हमेशा के लिए अंधेरे में धकेल दिया।
विक्की केवट के शरीर से खून रिसता रहा, और अस्पताल की सफेद चादरों के बीच उसकी सांसे थमती रहीं। जब डॉक्टरों ने कहा— “अब ये नहीं रहे,” तो उनके घर की दीवारों में जैसे गहरा मातम बस गया। निधि, विधि और अरमान को शायद ठीक से समझ भी नहीं आया कि उनके साथ क्या हो गया है।
चार साल का अरमान, जो अभी ठीक से बोलना भी नहीं सीख पाया है, अपने दादा के कांपते हुए हाथों को पकड़कर बार-बार पूछता है— “दादा, पापा कब आएंगे?”
दादा की आंखें झर-झर बहती हैं, लेकिन उसके पास कोई जवाब नहीं।

आगे क्या? इन बच्चों का भविष्य क्या होगा?
अब यह सवाल है कि इन मासूमों की पढ़ाई-लिखाई, पालन-पोषण कौन करेगा?
क्या जिला प्रशासन इनकी जिंदगी को बचाने के लिए आगे आएगा, या ये मासूम इसी दुनिया में अनाथों की तरह भटकते रहेंगे?
दादी-बाबा खुद बूढ़े हैं। पन्नू लाल चलने में भी असमर्थ हैं, उनकी झुकी हुई कमर और कांपते हाथ इस उम्र में किसी का सहारा ढूंढ रहे थे, लेकिन अब उन्हें खुद ही तीन अनाथ बच्चों का सहारा बनना होगा। बुधवतीया, जो अपने पोते-पोतियों के लिए दिनभर रसोई में जुटी रहती थीं, अब तकदीर के इस क्रूर फैसले के आगे बेबस होकर बैठी हैं।
कोई सरकारी अधिकारी उनके दरवाजे तक आया या नहीं वही जाने । कोई नेता,कोई समाज सेवक जो इन मासूमों की फटी किताबें, नंगे पैर, और सूनी आंखें देखने आया क्या ।

क्या इन मासूमों की तकदीर में सिर्फ अंधेरा है?
जब कोई इंसान मरता है, तो सिर्फ उसका शरीर नहीं, बल्कि उसके सपने भी मरते हैं। विक्की केवट की आंखों में भी अपने बच्चों के लिए कई सपने थे—
“बेटी पढ़ेगी, अफसर बनेगी…”
“बेटा बड़ा आदमी बनेगा, घर की गरीबी मिटाएगा…”
लेकिन अब उन सपनों की कब्र पर कोई फूल चढ़ाने वाला भी नहीं है।
अब कोई नहीं जो निधि को स्कूल भेजे, विधि के लिए नई किताबें खरीदे, अरमान को प्यार से बाहों में भरकर थपथपाए।
अब ये बच्चे इस बेरहम समाज में किसका दरवाजा खटखटाएंगे?
क्या वे फुटपाथ पर भीख मांगने को मजबूर हो जाएंगे?
क्या किसी लालची रिश्तेदार के घर में बंधुआ मजदूर बनकर रह जाएंगे?
या फिर अपराध की अंधेरी गलियों में खो जाएंगे, जहां दुनिया सिर्फ उनका इस्तेमाल करना जानती है?
अब प्रशासन को क्या करना चाहिए?
अब समय आ गया है कि जिला प्रशासन इन तीन अनाथों के लिए तत्काल कदम उठाए—
1. सरकारी अनुदान: इन बच्चों की पढ़ाई-लिखाई और परवरिश के लिए एक विशेष अनुदान की व्यवस्था की जाए।
2. सरकारी देखभाल: इन्हें किसी अच्छी देखभाल संस्था में रखा जाए, जहां इन्हें सही माहौल मिले।
3. बुजुर्ग दादा-दादी की सहायता: बूढ़े दादा-दादी को आर्थिक और चिकित्सा सहायता दी जाए ताकि वे कम से कम अपने पोते-पोतियों की देखभाल कर सकें।

मासूमियत की सूनी आंखें— क्या कोई रोशनी लौटेगी?
यह सिर्फ कोतमा की नहीं, बल्कि पूरे समाज की जिम्मेदारी है कि इन मासूमों की दुनिया को अंधेरे से बाहर निकाले।
निधि, विधि और अरमान को अगर अब भी इस क्रूर समाज ने अनदेखा किया, तो यह इंसानियत के नाम पर एक और बदनुमा धब्बा होगा। क्या कोई ऐसा फरिश्ता आएगा, जो इन तीनों की टूटी हुई दुनिया को फिर से जोड़ सके?
या फिर ये तीन नन्हे परिंदे इसी अंधेरी दुनिया में कहीं खो जाएंगे, जहां कोई मां नहीं, कोई पिता नहीं— बस अनंत दर्द और अंतहीन सिसकियां बचेंगी?
अब ये फैसला प्रशासन और समाज को लेना है— इन मासूमों को रोशनी चाहिए या अंधेरा?
कैलाश पाण्डेय



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