✍🏻 अपर्णा दुबे

वो कच्ची मिट्टी, वो कोमल कली,
घर की रौनक, आँगन की गली,
हर रिश्ते की डोरी में बंधती रही,
पर खुद की पहचान तरसती रही।
जिस घर में जन्मी, वहाँ पराई,
जिस घर में आई, वहाँ परछाईं,
जिसकी बिंदी घर का सूरज बनी,
वो खुद अंधेरों में सिमटती रही।
बचपन: सीमाओं की शुरुआत
गुड़ियों से खेला, सपनों को बुना,
पर सिखा दिया—”मत उड़ना बिना सुना,”
भाई ने गलियों में दौड़ लगाई,
बिटिया को सिखाई मर्यादा की कलाई।
वो बाबुल की लाड़ली, पर सिर झुकाना सीखा,
जो दिल में आया, उसे दबाना सीखा,
रंगों से पहले घूँघट रंग दिया,
पंखों से पहले पर काट दिया।
युवावस्था: विदाई की वेदना
सपनों की गठरी हाथ में थमाई,
बोल दिए शब्द—”अब तेरी विदाई,”
जिस आँगन में पली, वहाँ पराई हुई,
पर जिस देहरी आई, वहाँ परछाईं हुई।
घर किसी का, नाम किसी का,
हक किसी का, काम किसी का,
अपने ही जीवन में अजनबी रही,
रिश्तों की दुनिया में खोती रही।
ससुराल: रिश्तों के बंधन में उलझी नारी
सास के नियम, ननद की रीत,
पति का आदेश, मर्यादा की भीत,
बोल भी दूँ तो बगावत कही जाए,
चुप रहूँ तो संस्कारी कहलाऊँ मैं।
सभी की धुरी, पर खुद बिना आधार,
हर किसी का ख्याल, पर खुद लाचार,
अपने ही घर में किराएदार,
चुप्पी बनी सबसे बड़ी पुकार।
माँ बनकर भी पराई
बेटे का साया, बेटियों की छाया,
हर दर्द में छिपी ममता की माया,
पर बुढ़ापे में जब हाथ काँपे,
तब आँसू पोंछे कौन अपने?
जिसने परिवार की बगिया सजाई,
जिसने रिश्तों की दुनिया बसाई,
उसी के हिस्से में अंत में आई,
अकेली शाम, तन्हा परछाईं।
औरत: सहनशीलता से शक्ति तक
पर अब ये चुप्पी टूटेगी,
हर बंदिश की ज़ंजीर छूटेगी,
ना बेटी पराई, ना बहू परछाईं,
हर नारी अब पहचान बनाएगी।
न वो मिट्टी रहेगी, न मूरत रहेगी,
अब वो अपनी तक़दीर लिखेगी,
घर की शान भी, स्वाभिमान भी,
अब नारी बनेगी अभिमान भी।
✍🏻 अपर्णा दुबे



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