
मध्य प्रदेश के नेशनल हाईवे क्रमांक 43 पर फैली यह कहानी सिर्फ सड़क निर्माण की नहीं, बल्कि व्यवस्था की गड्ढों, भ्रष्टाचार के डायवर्जन और प्रशासनिक चुप्पी की वह सत्य कथा है जो कागज़ों पर चिकनी सड़क और ज़मीन पर दलदल का अनुभव कराती है। ये MPRDC और अमर्यादित अफसरशाही की उस कार्यशैली पर आधारित है, जहां न आंकड़े स्थिर हैं, न ज़मीनें और न ही नैतिक ज़िम्मेदारी।
शहडोल ज़िले से निकलते हुए NH-43 की सड़क कम, भ्रष्टाचार की दास्तान ज़्यादा दिखती है।
जहां प्रशासनिक फाइलें बढ़ती हैं, वहीं सड़कों का डामर पहली बारिश में बह जाता है। यह वही NH-43 है, जिसकी चौहद्दी तो बदल गई पर रकबा आसमान छू गया। और जब नाम पूजन के होते हैं और ज़मीन पावन भ्रष्टाचार की होती है, तो किसे परवाह कि सड़क बनी या बही।
MPRDC की ज़मीन नहीं, नियत खिसक गई!
0.040 हेक्टेयर ज़मीन अचानक कागज़ों से गायब हो गई। जमीन का अधिग्रहण तो हुआ, पर नाम? बस शून्य। वहीं दूसरी ओर, पूजा नामक पात्र को 0.067 हेक्टेयर भूमि की संपूर्ण क्षतिपूर्ति भी मिल गई। दस्तावेज़ों में लाल घेरे के अंदर घोटाले का मसीहा चमकता है — और सरकार, अफसर, इंजीनियर सब आंख मूंदकर ‘बैकडेट में कार्रवाई’ का पाठ पढ़ रहे हैं।
शून्यता के सिद्धांत पर आधारित भूमि अधिग्रहण!
जमीनी हकीकत ये कि जहां मुआवज़ा मिला, वहां ज़मीन नहीं। जहां ज़मीन है, वहां मालिक का नाम नहीं। और जो मालिक था, वह ‘सिस्टम’ के नीचे दब गया। इसका नाम है MPRDC मॉडल। जिसमें इंजीनियर कागज़ों पर सड़क और मुआवजा देते हैं बनाते हैं और ठेकेदार भ्रष्टाचार की सीमेंट से सिस्टम को पाटते हैं।
कागज़ बोले, “भूमि बढ़ाओ, चौहद्दी हटाओ!”
पंचनामा की जगह अनुविभागीय अधिकारी बांधवगढ़ द्वारा आदेश जारी कर 0.040 हे० का मुआवजा आपसी सहमति कर फिर दोबारा ले लिया गया तारीखें भी अद्भुत हैं। 18/04/2017 को गजट, फिर 14/03/2017 को पंचनामा। पीछे से आगे चल रही ये समय यात्रा केवल अफसरों और रसूखदारों के लिए संभव है। शिकायतकर्ता थककर बैठ गए हैं, लेकिन ज़िम्मेदार अफसर “फाइल की जांच जारी है” कहकर वातानुकूलित कार्यालयों में बैठे चाय सुड़क रहे हैं।
पूजा नाम की महिला, जिनके नाम पर खेला गया मुआवज़े का महाखेल, सरकारी दस्तावेज़ों की ब्रह्मांडीय व्यवस्था से प्रमाणित हो चुकी हैं।
0.040 हेक्टेयर भूमि जो गायब हो गई, अब तक नहीं मिली क्या अंतरिक्ष में चली गई या व्यस्त अफसर की दराज़ में गिर गई, यह शोध का विषय है।
जांच टीम खुद इतना गुम हो चुकी है कि अब जनता को ‘जांच की जांच’ की मांग करनी पड़ रही है।
प्रशासन की भूमिका ‘जो देखे सो चुप रहे’


जिला प्रशासन, तहसीलदार, भू-अभिलेख, मुआवज़ा शाखा और MPRDC – सभी के कंधे पर ज़िम्मेदारी थी, पर सबने एक-दूसरे की ओर देख मुस्करा कर कहा – “आप पहले!”
नतीजा – जनता अब सोशल मीडिया, अखबार और जनहित याचिकाओं में न्याय की मांग कर रही है, और उधर भ्रष्टाचार का हाईवे मुनाफ़े की रफ्तार से दौड़ रहा है।
शहडोल से अमरकंटक तक फैली यह NH-43 की सड़क नहीं, बल्कि अफसरों की ‘कमाई की पगडंडी’ बन चुकी है। MPRDC जैसे विभाग, जिनसे उम्मीद थी कि वे प्रदेश को प्रगति की राह पर ले जाएँगे, अब खुद ‘भ्रष्टाचार एक्सप्रेस’ के चालक बन बैठे हैं।
अब सवाल ये नहीं कि जमीन कहाँ गई, सवाल ये है कि प्रशासन की आत्मा कहाँ सोई हुई है?
विशेष आग्रह
जिला प्रशासन, MPRDC और संबंधित तकनीकी अधिकारियों से जनता केवल यह जानना चाहती है:
“तो कहाँ गुम हो गई वो 0.040 हेक्टेयर ज़मीन?”



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